परवरिश - लघुकथा –
आज फिर शुभम और सुधा में गर्मागर्म बहस हो रही थी। मुद्दा वही था कि बाबूजी के कारण बिट्टू उदंड और जिद्दी होता जा रहा है।
"सुधा, बिट्टू उनकी संगत में जिद्दी नहीं तार्किक और जिज्ञासु हो गया है। हम इस विषय में कितनी बार बात कर चुके हैं कि अस्सी साल की उम्र में मैं अपने पिता को अलग नहीं रख सकता।"
"तो मैं बिट्टू के साथ कहीं और चली जाती हूँ। इतना तो कमा ही लेती हूँ कि दोनों का गुजारा हो सके।"
"सुधा तुम्हें पता है, मेरी माँ की मृत्यु के समय मैं केवल…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on September 28, 2018 at 9:00am — 10 Comments
"दुनिया भर में हमारा नाम हो रहा है! लोग हमारी बहुआयामी तरक़्क़ी की बात कर हमसे अपनी तरक़्क़ी साझा करने के लिये लालायित हैं! हम सब कुछ बदल कर एक नये विकसित देश का निर्माण करने जा रहे हैं!"
"ये कैसा देश है रे, जो इतने आत्मविश्वास से यूं गर्वोक्तियां कर रहा है!" एक और नन्हें से महत्वाकांक्षी विकासशील देश ने एक बड़े विकसित देश से कहा।
"आजकल मेरे साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रहा है! ज़रा देखो तो, कितना डिवेलप हो रहा है मेरे ही कर्ज़ से, मेरी ही तकनीकों से और मेरी ही…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 28, 2018 at 6:00am — 3 Comments
"इस बार सारे हाव भाव बता रहे हैं कि बेटा ही होगा, मैं तो नेग में हीरे की अंगूठी लूँगी भाभी", मानसी ने चुहल करते हुए कहा.
वह बिस्तर पर लेटे लेटे मुस्कुरायी लेकिन उस मुस्कराहट के पीछे छिपे दर्द को मानसी ने पकड़ लिया.
"क्या बात है, इतनी ख़ुशी की बात पर भी तुम खुश नहीं हो भाभी, क्या दुबारा बेटी ही चाहिए?, मानसी ने थोड़े अचरज से पूछा.
वह सोचने लगी, स्कूल, कालेज और फिर शुरूआती नौकरी के दौरान होने वाले सभी पीड़ादायक अनुभव एक एक करके उसके जेहन में ताज़ा हो गए. हर कदम पर उसे लड़कों के छेड़…
Added by विनय कुमार on September 27, 2018 at 8:00pm — 6 Comments
झूठी चाय ... (लघु रचना )
देख रही थी
सुसंस्कृत सभ्यता
सूखे स्तनों से
अधनंगी संतान को
दूध के लिए
छटपटाते
पिला दी
कागज़ के झूठे कपों में
बची चाय
कर दी क्षुधा शांत
अपने बच्चे की
सुसंस्कृत आवरण में
उबलती
सभ्य झूठ की
मृत संवेदना में लिपटी
पैंदे में बची
झूठी
चाय से
सुशील सरना /२७. ०९,२०१८
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on September 27, 2018 at 4:36pm — 2 Comments
हैंगर में टंगे सपने ....
तीर की तरह चुभ जाता है
ये
मध्यम वर्ग का शब्द
और
किसी की हैसियत को
चीर- चीर जाता है
किसी जमाने में
मध्यम वर्ग के लिए
पहली तारीख
किसी पर्व से कम न थी
पहली तारीख तो आज भी है
मगर
उसके साथ खुशियां कम
और चिन्ताएँ अधिक हैं
पहली तारीख
दिल चाहता है
आज का सूरज सो जाए
रात कुछ लम्बी हो जाए
पानी,बिजली, टेलीफोन,मोबाईल के
भुगतानों की…
Added by Sushil Sarna on September 26, 2018 at 7:00pm — 12 Comments
माया-काया के चक्कर मे, उलझे जाने कितने लोग।
दूर तमाशा देख रहे हैं, हम जैसे अनजाने लोग॥
ठगनी माया कब ठहरी है,एक जगह तू सोच ज़रा।
बौराए से फिरते रहते, कुछ जाने पहचाने लोग॥
हँसना-रोना, खोना –पाना, जीवन के हैं रंग कई।
दुख से…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 26, 2018 at 1:00pm — 3 Comments
जनहित में
अप शब्दों से बचना सीखें
सबके दिल में बसना सीखें
गम की सारी खायी पाटें
हिल मिलकर के हँसना सीखें ll
सुख दुख को सब सहना जानें
छोड़ बैर सब कहना मानें
सहिष्णुता का पाठ पढ़ाकर
भाई जैसा रहना जानें ll
दिल से सबको गले लगाएं
प्रेम मुहब्बत सदा बढ़ाएं
हर गिरते का हाथ पकड़कर
बीच राह में उसे उठाएं ll
ये अपनों से दूरी कैसी
आखिर ये मजबूरी कैसी
अब उसका हक नहीं…
ContinueAdded by डॉ छोटेलाल सिंह on September 26, 2018 at 11:57am — 8 Comments
अरकान:-
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फेलुन
बीते लम्हों को चलो फिर से पुकारा जाए
वक़्त इक साथ सनम मिलके गुज़ारा जाए
तोड़कर आज ग़लत…
ContinueAdded by santosh khirwadkar on September 26, 2018 at 8:22am — 12 Comments
बात लिखूँ मैं नई पुरानी, थोड़ी कड़वी यार
सही गलत क्या आप परखना, विनती बारम्बार।।
झेल रहा है बचपन देखो,
बस्तों का अभिशाप
सदा प्रथम की हसरत पाले,
दिखते हैं माँ बाप।।
पढ़ो रात दिन नम्बर पाओ, कहना छोड़ो यार
सही गलत क्या आप परखना, विनती बारम्बार।।
गुंडे और मवाली के सिर,
सजे आजकल ताज
पढ़े लिखे हैं झोला ढोते,
पर है मौन समाज।।
सबको चिंता एक यहाँ बस, हो स्वजाति सरकार
सही गलत क्या आप परखना, विनती…
Added by नाथ सोनांचली on September 25, 2018 at 7:30pm — 13 Comments
पूरा ऑफिस इकट्ठा हो गया था, बॉस जूते निकालकर मंदिर में घुसा और गणपति आरती शुरू हो गयी. उसे यह सब ठीक नहीं लग रहा था लेकिन सब आये थे तो उसे भी आना पड़ा. एक किनारे खड़ा वह सोच रहा था कि अगर यहीं किसी और धर्म का व्यक्ति अपनी इबादत शुरू करना चाहे तो क्या ये लोग उसे भी इसी तरह करने देंगे.
चंद मिनटों बाद उसकी नज़र सफाई कर्मचारी हमीदन बी पर पड़ी, वह भी एक तरफ चुपचाप खड़ी थी. उसे बेहद आश्चर्य हुआ, यह उसकी धारणा के उलट था. खैर पूजा संपन्न हुई और प्रसाद देने वाले ने हमीदन बी को भी एक लड्डू और मोदक दिया…
Added by विनय कुमार on September 25, 2018 at 4:51pm — 13 Comments
पंडित जी और मुल्ला जी दोनों शाम के वक़्त शहर के सर्वसुविधायुक्त पार्क में चहलक़दमी और कुछ योगाभ्यास करने के बाद पीपल के नीचे चबूतरे पर मूंगफली-दाने चबाते हुए स्मार्ट फोन पर एक-दूसरे को आज की न्यूज़ हाइलाइट्स सुना कर उनसे मुताल्लिक बातचीत करने लगे :
"जब मच्छर, चूहे, नेवले, सांप आदि अपने-अपने ज़रूरी काम से हमारे घरों में घुसते हैं, तो हम परेशान होकर उन पर प्राण-घातक कार्यवाही कर डालते हैं, तो मुल्ला जी हमारे ये वैज्ञानिक दूसरों के घरों में मशीनें-रोबोट आदि भेज कर वहां के दृश्य या…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 25, 2018 at 6:28am — 9 Comments
सोचिये मत यहाँ ख़ता क्या है ।
है इशारा तो पूछना क्या है ।।
अब मुक़द्दर पे छोड़ दे सब कुछ ।
सामने और रास्ता क्या है ।।
वो किसी और का हो जाएगा ।
बारहा उसको देखता क्या है ।।
गर है जाने की ज़िद तो जा तू भी ।
अब तेरा हमसे वास्ता क्या है ।।
इतना …
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on September 25, 2018 at 3:16am — 12 Comments
"नहीं! मैं नहीं दूंगी अपने 'गणेशा' को।" विसर्जन के समय बेटी के हठी जवाब से मेरे सामने एक अजीब स्थिति आ खड़ी हुयी।
पता नहीं ये मेरा अपनी बेटी के प्रति प्रेम था या उसकी बालहठ, कि मैं अपनी पारंपरिक मान्यताओं से आगे बढकर अपने घर पर गणपति जी की स्थापना के लिए तैयार हो गया और न केवल ५-७ दिन, बल्कि पूरे ११ दिन गणपति जी हमारे घर में विराजमान रहे। इसी बीच हर दिन बेटी का गणेशजी के साथ एक छोटे बच्चे की तरह प्यार जताना और उसकी उनकी देखभाल करना हमारे लिए एक उत्सव की तरह हो गया था।…
Added by VIRENDER VEER MEHTA on September 23, 2018 at 8:20am — 13 Comments
सो न सका मैं कल सारी रात
कुछ रिश्ते कैसे अनजाने
फफक-फफक, रात अँधेरे
प्रात की पहली किरण से पहले ही
सियाह सिफ़र हो जाते हैं
अनगिनत बिखराव और हलचल…
ContinueAdded by vijay nikore on September 23, 2018 at 7:11am — 17 Comments
दुर्गा - लघुकथा –
शुरू में मैंने दुर्गा को एक महीने के लिये ट्रायल पर रखा था क्योंकि उसे देखकर लगता नहीं था कि काम वाली बाई है। खूबसूरत और जवान तो थी ही लेकिन साथ ही गज़ब की स्टाइलिश और फ़ैशनेबिल। चटकीली सुर्ख लिपस्टिक, गॉगल, मोबाइल, बड़ा सा लेडीज पर्स भी रखती थी।
मुझे बहुत तनाव रहता था जब वह पतिदेव की उपस्थिति में आती थी। ऐसे में मुझे अतिरिक्त सावधानी रखनी पड़ती थी। हालाँकि पतिदेव का इतिहास साफ सुथरा था। पर मर्द जात का क्या भरोसा। ऊपर से दुर्गा के लटके झटके। एक बार तो मैंने उसे कह…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on September 22, 2018 at 12:07pm — 10 Comments
नाभी में लेकर कस्तूरी
तय करता मृग कितनी दूरी
पागल मनवा उलझा उलझा
सहरा-सहरा जंगल-जंगल
खोज रहा है नादानी में
बौराया सा हर पल प्रति पल
नाभी में लेकर कस्तूरी
तय करता मृग कितनी दूरी
रब के दर्शन की चाहत में
मंदिर मस्जि़द रस्ते रस्ते
भान नहीं है उनको इतना
राम रहीमा उर में बसते
बाहर ढूंढें चंदन नूरी
कैसे होगी चाहत पूरी
खेतों में जब उगता सूरज
मिलता सबसे वो हँस हँस कर
उजली भोर संदेशा…
Added by rajesh kumari on September 22, 2018 at 11:49am — 16 Comments
आशंका के गहरे-गहरे तल में
आयु के हज़ारों लाखों पलों के दबे ढेर में
नए कुछ पुराने दर्दों की कानों में आहट
भार वह भीतर का जो खलता था तुमको
मुझको भी
एक दूसरे को दुखी न देखने की
दर्द और न देने की मूक अभिलाषा
रोकती रही थी तुमको... कुछ कहने से
मुझको भी
पर परस्पर दर्द और न देने की इस चाह ने
बना दी है अब बीच हमारे कोई खाई गहरी
काल ने मानो सुनसान रात की गर्दन दबोच …
ContinueAdded by vijay nikore on September 21, 2018 at 11:16pm — 19 Comments
कुछ क्षणिकाएं :
पिघलती नहीं
अब
अंतर्मन की व्याकुलता
आँखों से
स्वार्थ का चश्मा
सोख लेता है
सारा दर्द
................
सीख लिया है
आँखों ने
खारा पानी पीना
संवेदनहीन
हो गया है
वर्तमान
.........................
झीलें नहीं होती
भावों की
आँखों में
मैच कर लेता है
हर अंतरंग का रंग
कांटेक्ट लेंस
.....................
मुद्दत हो गई
खुद से मुलाकात हुए
शायद…
Added by Sushil Sarna on September 21, 2018 at 2:36pm — 19 Comments
चंदा से गपियाने के दिन
कहाँ कठिन थे
’राजनीति’ को छोड़ो
कैसे अच्छे दिन थे।
टीलों पर,
रथ ले अपना
भाग निकलते थे,
अब विमान में डर है
नौ ग्यारह फिर आये;
घसीटते जीवन को,
बोर हुई यात्रायें,
जेटलेग के मारे
नींद रुष्ट हो जाये;
इंटरनेट बिना भी
न थी झंझट कहीं भी
सभी खुले में होते
जश्न, कहाँ केबिन…
ContinueAdded by Harihar Jha on September 21, 2018 at 1:30pm — 8 Comments
उनके आने से सांस चल रही है
वर्ना लगता था सांझ ढल रही है
अपनी किस्मत कहाँ थी ऐसी पर
जो मांगी थी दुआ फल रही है
हौसले भी थे और यकीं भी था
बुझने वाली थी शमा जल रही है
वक़्त का क्या है कुछ नहीं मालूम
दिक्क़त आजकल तो टल रही है
एक दिन ख़त्म होगी मायूसी
ऐसी उम्मीद दिल में पल रही है !!
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on September 20, 2018 at 4:57pm — 4 Comments
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