2122 1122 1122 22
कुछ धुंआ घर के दरीचों से उठा हो जैसे ।
फिर कोई शख्स रकीबों से जला हो जैसे ।।
खुशबू ए ख़ास बताती है पता फिर तेरा ।
तेरे गुलशन से निकलती ये सबा हो जैसे ।।
बादलों में वो छुपाता ही रहा दामन को ।
रात भर चाँद सितारों से ख़फ़ा हो जैसे ।।
जुल्म मजबूरियों के नाम लिखा जायेगा ।
बन के सुकरात कोई ज़ह्र पिया हो जैसे ।।
खैरियत पूँछ के होठों पे तबस्सुम आना ।
हाल ए दिल मेरा तुझे खूब पता हो जैसे…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on August 4, 2018 at 9:03pm — 14 Comments
एक ग़ज़ल.......
122 122 122 122
नजर है तो पढ़िए गजल झुर्रियों में
ये चेहरा कभी है रहा सुर्खियों में।
वतन को सजाने के वादे किए थे
सदा आप उलझे रहे कुर्सियों में।
मसीहा समझ के था अगुवा बनाया
मगर आप भी ढल गए मूर्तियों में।
चढ़ाया हमीं ने उतारेंगे हम ही
पलक के झपकते, यूँ ही चुटकियों में।
अरुण के इशारे समझ लें समय है
नसीहत को गिनिए नहीं धमकियों में।।
(मौलिक व अप्रकाशित)☺
Added by अरुण कुमार निगम on August 4, 2018 at 8:00pm — 5 Comments
हर तरफ बस दिख रहा इंसान है
हाँ, मगर अपनों से वो अंजान है
थे कभी रिश्ते भी नाते भी मगर
आजतो यह सिर्फ इक सामान है
जिसको कहते थे कभी काबिल सभी
सबकी नज़रों में वो अब नादान है
जिसको सौंपी थी हिफाज़त बाग़ की
बिक रहा उसका ही अब ईमान है
हर तरफ बैठे शिकारी घात में
चंद लम्हों का वो अब मेहमान है
था कभी गुलज़ार जो शाम-ओ-सहर
अब वही दिखने लगा शमशान है
जिसने देखे अम्न के सपने कभी
अब उसी का टूटता अरमान है …
Added by विनय कुमार on August 4, 2018 at 6:30pm — 11 Comments
1222,1222, 1222, 1222
चलो ये बोझ भी दिलपर उठाकर देख लेते हैं
किसीको हम ज़रा दिलमें बसाकर देख लेते हैं
जियेगें किस तरह तन्हाँ यहाँ साथी अगर छूटा
यहाँ जो बेवजह रूठा मनाकर देख लेते हैं .....
कहाँतक हार है अपनी ज़रा इसका पता करलें
यहाँ भी ईक नयी बाज़ी लगाकर देख लेते है....
कहो कैसे यक़ीं तुमको दिलायें आशनाई का.
लगेहैं जख्म जो दिल पर दिखाकर देख लेते हैं
जमींपर जो नहीं मिलते वो मिलते आसमानों पर
चलो…
Added by Kishorekant on August 4, 2018 at 5:30pm — 5 Comments
हँस पड़ती हूँ ,
अक्सर मैं,
मुझे तोड़ने में
मशगूल,
अपनी अमोल ऊर्जा,
व्यर्थ करते उन,
मिथ्या हितैषियों को
देखकर,
टूटन को नित,
यूँ पान करती
आई हूँ कि,
ये गरल तो मेरी
हर श्वांस में
घुला-मिला है,
इसे नित जीकर....
कि इसके बिना,
हल्की-हल्की सी,
श्वांसों पर यकीं
ना होना
लाजिमी है,
तिल भर भी तो,
नहीं बची है,
कोई जगह
जहाँ किसी को
अवसर मिले,
मुझे…
Added by Arpana Sharma on August 4, 2018 at 3:40pm — 6 Comments
शिक्षा संस्थाओं के
हाल आज और हैं
छात्र यूनियनों में
लड़ाई के दौर हैं
शिक्षालय आज
राजनीति के अड्डे हैं
कमाई,चुनाव के
थ॓धों पर थंधे हैं
फैली अराजकता
अलग -अलग झंडे हैं
परिसर में घूमते
दलालों के पंडे हैं
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Usha Awasthi on August 4, 2018 at 10:30am — No Comments
पूर्णतया शिक्षा को गुरू समर्पित थे
कंद,मूल,फल,बिना जोता अन्न खाते थे
पठन -पाठन को समय बचाते थे
तभी तो गुरुजन श्रृषि कहलाते थे
गुरुकुल के प्राँगण में व्यर्थ वाद वर्जित था
गुरू ज्ञान-धारा से हर छात्र सिंचित था
चरणों में उनके नतमस्तक हो जाते थे
तभी तो गुरुजन श्रृषि कहलाते थे
राजा उनसे मिलने गुरुगृह जब जाते थे
आयुध अपने बाहर रख अन्दर आते थे
उलझनें शासन की,उन स॔ग सुलझाते थे
तभी तो गुरुजन श्रृषि कहलाते थे
मौलिक एव॔…
Added by Usha Awasthi on August 4, 2018 at 10:30am — 8 Comments
"हैल्लउ! हाउ आs..यू? कैसे हैं जनाब?"
"फाइन! रॉकिंग!".. और आप सब ! कैसा लगता है अब विदेश में?"
"क्वाइट गुड! बट बेटर देन इंडिया! कुछ एक बातें तो 'अनकॉमन और पॉज़िटिव' हैं, लेकिन हम जैसे भावुक भारतीयों के लिए अधिकतर बातें 'कॉमन और निगेटिव' ही हैं पैसे, स्वार्थों की होड़ और 'तकनीक व ग्लोबलाइज़ेशन' की दौड़ में !"
"मतलब तुम सब भी हमारी तरह विदेश में भी ज़माने के साथ नाच ही रहे हो न!"
"हां, यही कह लो! लेकिन अंतर तो है! हम यहां सेहत और सुव्यवस्था के साथ…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 4, 2018 at 12:30am — 6 Comments
आप महफिल में आये बैठे हैं
फिर भी नजरें झुकाये बैठे हैं
मसअला ये कि मेरी बात से वो
अब तलक़ खार खाये बैठे हैं
मुझको तो याद भी नहीं और वो
बात दिल से लगाए बैठे हैं
हम तो करते नहीं कभी पर्दा
वो ही चिलमन गिराए बैठे हैं
हमने हर चीज याद रक्खी है
जाने वो क्यूँ भुलाए बैठे हैं
हर तरफ दौर है ठहाकों का
और वो मुंह फुलाए बैठे हैं
बात दर अस्ल थी बहुत छोटी
वो बड़ी सी …
Added by विनय कुमार on August 3, 2018 at 7:00pm — 7 Comments
मेरा घर - लघुकथा –
"हद हो गयी, अभी तीन दिन पहले ही साफ किया था जाला। फिर बना लिया"।
कमला झाड़ू लेकर मकड़ी के जाले को जैसे ही साफ करने लगी।
मकड़ी गिड़गिड़ाते हुये बोली,"क्या बिगाड़ा है मैंने तुम्हारा। क्यों मेरा घर संसार उजाड़ रही हो"?
"अरे वाह, मेरे ही घर में बसेरा कर लिया और मुझे ही ज्ञान दे रही हो"।
"हर कोई किसी ना किसी पर आश्रित है। संसार की यही रीति है"।
"होगी, पर मुझे तो नहीं पसंद। और यह तुम्हारा घर संसार। क्या है इसमें? जीवन भर की क़ैद। उम्र भर…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on August 3, 2018 at 4:38pm — 8 Comments
स्वर्ण-कलश हो गए लबालब,
क्यों हूँ अब तक रिक्त पड़ा.
जाने कब नंबर आयेगा,
यही सोचता रहा घड़ा.
नदिया सूखी, पोखर प्यासी,
तालाबों की वही कहानी.
झरने खूब बहे पर्वत से,…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on August 3, 2018 at 4:33pm — 2 Comments
स्वर्ण-कलश हो गए लबालब,
क्यों हूँ अब तक रिक्त पड़ा.
जाने कब नंबर आयेगा,
यही सोचता रहा घड़ा.
नदिया सूखी, पोखर प्यासी,
तालाबों की वही कहानी.
झरने खूब बहे पर्वत से,…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on August 3, 2018 at 4:33pm — 2 Comments
प्यार का सारांश कोई छान कर लाये वहाँ से
पारदर्शी प्यार के सन्दर्भ दिखते हों जहां से
कृष्ण केवल राधिका का है दिवाना मान लूं तो
मोर का फिर पंख तेरी सेज पर आया कहाँ से
( 2122 2122 2122 2122 )
जो सहारों के सहारे हैं, सरसते वे नही
फाड़ देते जो धरा को हैं तरसते वे नही
चापलूसों की हकीकत है मुझे बेशक पता
जानता हूँ जो गरजते हैं, बरसते वे नही
…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 3, 2018 at 3:30pm — 7 Comments
ज़माने की जहालत कम नहीं थी,
इधर अपनी बग़ावत कम नही थी..
लिये ख़ंजर वो देखो ताक में हैं,
हमारी जिस को चाहत कम नहीं थी..
सभी की थी दिखावे की मुहब्बत,
दिलों में वैसे नफ़रत कम नहीं थी..
जहाँ पर ज़िन्दगी की खुशबुएं थी,
उसी महफ़िल में ग़ीबत कम नहीं थी..
हमारे पास रुसवाई की दौलत,
अरे उनकी बदौलत कम नहीं थी..…
Added by Zohaib Ambar on August 3, 2018 at 3:30am — 5 Comments
किसी ने तेरी सूरत देख ली है,
यही समझो क़यामत देख ली है..
अभी अंजाम-ए-दिल मालूम क्या है,
अजी तुमने तो आफत देख ली है..
कि ईजा हिज्र की देखी कहाँ थी,
फ़क़त तेरी बदौलत देख ली है..
चुराता है वो काफ़िर आँख मुझसे,
निगाह-ए-चश्म-ए-हसरत देख ली है..
शराफत आज हमने तर्क कर दी,
ज़माने की शराफत देख ली है..
ज़रा शिकवा किया था आज उनसे,
अरे उल्टी नदामत देख ली है..
संभल जाओ मियां ज़ोहेब तुम भी,…
Added by Zohaib Ambar on August 3, 2018 at 3:30am — No Comments
"अपनी तो बहुत ख़ैर-ख़बर हो गई! चलो, अब सुनें, वो दिलवाली का कहिन?" बिहार ने एक-दूसरे के हालात-ए-हाज़रा सुनने-सुनाने के बाद यूपी से कहा।
"दिलवाली! ... अच्छा वोss ... जो अपने को दिलवाली कहती रही? अब कहां रही वैसी!" व्यंग्यात्मक लहज़े में यूपी ने अपना रंगीन गमछा लहरा कर कहा।
"अपन दोनों से तो बेहतर ही है! खलबली और हड़बड़ी तो सब जगह है!" मुल्क के नक्शे पर राजधानी पर दृष्टिपात करते हुए बिहार ने कहा - "दिल तो उसका वाकई पहले से भी बड़ा हो गया है! न जाने कितने किस्म के दवाब, अन्याय…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 3, 2018 at 12:00am — 3 Comments
हमें ख़ुशियाँ नहीं क्यों ग़म मिला है
नहीं माँगा वही हरदम मिला है
अधूरी चाहतें लेकर जिये हैं
हमेशा चाहतोंसे कम मिला है
नहीं फ़रियाद बस सजदे किये हैं
कहो जन्नतमें’ क्यों मातम मिला है
सफ़र कांटोभरा क्या कम नहीं था
हमें बेज़ार क्यों मौसम मिला है
मनानेके सभी फ़न बेअसर हैं
बड़ा ही संगदिल हमदम मिला है
१२२२,१२२२,१२२ “अम” मिला है ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।
Added by Kishorekant on August 2, 2018 at 7:12pm — 1 Comment
"ये लो! मैं बुध ग्रह को जीत गया।" उस सितारे की तीव्र तरंगदैर्ध्य वाली खुशी से भरपूर ध्वनि से आसपास की आकाशगंगाएं गुंजायमान हो उठीं।
सूदूर अंतरिक्ष में, जहाँ समय और विस्तार अनंत हैं, चार सितारे अपने ही प्रकार का जुआ खेल रहे थे। दांव पर लग रहे थे, उनके सौरमंडल के विभिन्न छोटे-बड़े ग्रह, उपग्रह, उल्कापिंड आदि। मनुष्यों से प्रेरित हो हमारा सूर्य भी उनमें से एक था। हालांकि उस समय उसका समय सही नहीं था। वह लगातार हार रहा था।
शनि के वलय, मंगल का सबसे ऊंचा पर्वत,…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on August 2, 2018 at 7:00pm — 3 Comments
जिस्म से रूह से भी यारी है
इश्क़ में इक सदी गुजारी है
उनसे मिलके भी दिल नहीं भरता
बढ़ रही फिर से बेकरारी है
उनकी बातें हैं जाम की बातें
फिर से चढ़ने लगी खुमारी है
सारी खुशियाँ उन्हें मुअस्सर हैं
सिर्फ अपनी ही गम से यारी है
उनके लब पे भी नाम हो अपना
ये कवायद हमारी जारी है
एक दिन वो मिलेंगे हमको ही
इश्क़ से क़ायनात हारी है
मैं भी मिल पाऊँगा यक़ीन हुआ
उनके अपनों…
Added by विनय कुमार on August 2, 2018 at 3:00pm — 3 Comments
किसी बुरी शै का असर देखता हूं ।
जिधर देखता हूं जहर देखता हूं ।।
रोशनी तो खो गई अंधेरों में जाकर।
अंधेरा ही शामो शहर देखता हूं ।।
किसी को किसी की खबर ही नहीं है।
जिसे देखता हूं बेखबर देखता हूं ।।
ये मुर्दा से जिस्म जिंदगी ढो रहे हैं।
हर तरफ ही ऐसा मंजर देखता हूं ।।
लापता है मंजिल मगर चल रहे हैं।
एक ऐसा अनोखा सफर देखता हूँ।।
चिताएं चली हैं खुद रही हैं कब्रें।
मरघट में बदलते घर देखता हूं ।।
परेशां हूं दर्पण ये क्या देखता…
ContinueAdded by Pradeep Bahuguna Darpan on August 1, 2018 at 9:56pm — 4 Comments
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