Added by Samar kabeer on November 1, 2017 at 11:44am — 61 Comments
सहम कर सिहरने लगता है
धमनियों में दौड़ता रक्त,
काँपने लगती है रूह,
खिंचने लगतीं हैं सब नसें,
मुस्कुराहट कहीं दुबक जाती है,
हर इच्छा कहीं खो जाती है,…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on November 1, 2017 at 11:30am — 10 Comments
Added by Manan Kumar singh on November 1, 2017 at 9:58am — 4 Comments
1222 1222 1222 1222
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जिधर देखो उधर मिहनत कशों की ऐसी हालत है-
ग़रीबों की जमा अत पर अमीरों की क़यादत…
ContinueAdded by SALIM RAZA REWA on November 1, 2017 at 9:30am — 15 Comments
Added by Mohammed Arif on November 1, 2017 at 8:30am — 24 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 1, 2017 at 1:22am — 12 Comments
महाकवि कालिदास ने ‘मेघदूत ‘ खंड काव्य में दोहद’ शब्द का प्रयोग किया है -
रक्ताशोकश्चलकिसलय: केसरश्चात्र कान्त:
प्रत्यासन्नौ कुरबकवृतेर्माधवीमण्डपस्य।
एक: सख्यास्तव सह मया वामपादाभिलाषी
काङ्क्षत्वन्यो वदनमदिरां दोहदच्छद्मनास्या:।।
[उस क्रीड़ा-शैल में कुबरक…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 31, 2017 at 9:30pm — 5 Comments
Added by maharshi tripathi on October 31, 2017 at 4:00pm — 3 Comments
Added by डॉ छोटेलाल सिंह on October 31, 2017 at 12:23pm — 18 Comments
तरही ग़ज़ल अल्लामा इकबाल जी का मिसरा
“ तेरे इश्क की इम्तिहाँ चाहता हूँ “
काफिया : आ ; रदीफ़ :चाहता हूँ
बहर : १२२ १२२ १२२ १२२
*****************************
कभी दुख कभी सुख, दुआ चाहता हूँ
इनायत तेरी आजमा चाहता हूँ |
'वफ़ाओं के बदले वफ़ा चाहता हूँ
तेरे इश्क की इम्तिहा चाहता हूँ |
जो’ भी कोशिशे की हुई सब विफल अब
हूँ’ बेघर मैं’ अब आसरा चाहता हूँ |
ज़माना हमेशा छकाया मुझे है
अभी…
ContinueAdded by Kalipad Prasad Mandal on October 31, 2017 at 11:00am — 5 Comments
देखी एक दिन फूलों की लडाई
रहते थे अब तक जो बन भाई - भाई |
काँटों से निकल कर गुलाब बोला
सूरज ने जब रात का पट खोला
मेरी खुशबू से खिलता है बाग़
समाज जाते हैं लोग खिल गया गुलाब
सुन रहे थे यह और भी फूल कई
नहीं हैं हम भी मिटटी या धूल कोई
बाग में हो रही थी सबकी बहस
हो रहा था बाग तहस नहस
कीचड़ से कमल खिल उठा
देख सबको वह बोल उठा
देखो खुद को , सोचो तो…
ContinueAdded by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 30, 2017 at 10:18pm — 7 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 30, 2017 at 8:39pm — 7 Comments
मुझे संसार में आने दो .....
ठहरो !
पहले मैं अपनी बेनामी को नाम दे दूँ
गर्भ के रिश्ते को
दुनियावी अंजाम दे दूँ
जानती हूँ
जब
तुम मुझे जान जाओगे
बिना समय नष्ट किये
मुझे गर्भ से ही
कहीं दूर ले जाओगे
कूड़ेदान
कंटीली झाड़ियों
या फिर किसी नदी,कुऍं में
या किसी बड़े से पत्थर के नीचे
दूर रेगिस्तान में
फेंक आओगे
जहां से तुम्हें
मेरी चीख भी सुनायी न देगी
इसके बाद
तुम चैन की नींद सो…
Added by Sushil Sarna on October 30, 2017 at 6:49pm — 6 Comments
जुलाहा ....
मैं
एक जुलाहा बन
साँसों के धागों से
सपनों को बुनता रहा
मगर
मेरी चादर
किसी के स्वप्न की
ओढ़नी न बन सकी
जीवन का कैनवास
अभिशप्त सा बीत गया
पथ की गर्द में
निज अस्तित्व
विलीन हुआ
श्वासों का सफर
महीन हुआ
मैं जुलाहा
फिर भी
सपनों की चादर
बुनता रहा
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on October 30, 2017 at 12:30pm — 10 Comments
Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 29, 2017 at 10:00pm — 13 Comments
२२ २२ २२ २
खुद ही काटे अपने पर
क्या धरती अब क्या अम्बर
कोई खिड़की न कोई दर
कितना उम्दा अपना घर
दुनिया तेरी धरती पर
अपनी हद बस ये गज भर
बंद कफ़स हो चाहे खुला
तुझको अब कैसा है डर
सारा आलम रख ले तू
मेरी अब परवाह न कर
मेरी अपनी मंजिल है
तेरी अपनी राह गुज़र
बेजा अब हैं तीर तेरे
तन पत्थर है मन पत्थर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by rajesh kumari on October 29, 2017 at 8:44pm — 17 Comments
22 22 22 22 22 22 22 2
वो जितना गिरता है उतना ही कोई गिर जाये तो
उसकी ही भाषा में उसको सच कोई समझाये तो
सूरज से कहना, मत निकले या बदली में छिप जाये
जुगनू जल के अर्थ उजाले का सबको समझाये तो
मैं मानूँगा ईद, दीवाली, और मना लूँ होली भी
ग़लती करके यार मेरा इक दिन ख़ुद पे शरमाये तो
तेरी ख़ातिर ख़ामोशी की मैं तो क़समें खा लूँ, पर
कोई सियासी ओछी बातों से मुझको उकसाये तो
कहा तुम्हारा मैनें माना,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on October 29, 2017 at 6:11pm — 25 Comments
22 22 22 22 22 2 ..
बातों ही बातों में उनसे प्यार हुआ.
ये मत पूछो कैसे कब इक़रार हुआ
.
जब से आँखें उनसे मेरी चार हुईं.
तब से मेरा जीना भी दुश्वार हुआ
.
वो शरमाएँ जैसे शरमाएँ…
ContinueAdded by SALIM RAZA REWA on October 29, 2017 at 8:30am — 21 Comments
Added by दिनेश कुमार on October 29, 2017 at 7:14am — 11 Comments
'कारसाज'
"जनाब, गर आप को ऐतराज न हो तो एक बात कहना चाहता हूँ।" खान साहब के केबिन से बाहर जाते ही उनके एडिटर ने अपना रुख मेरी ओर किया था।
"अनवर मियाँ, आप यहां वर्षों से काम कर रहे है और खान साहब की तरह मैं भी आपको बहुत मान देता हूँ। आप बेहिचक अपनी बात मुझसे कह सकते है।" मैं मुस्करा दिया।
"जनाब बात ही कुछ ऐसी है कि कहने में हिचक हो रही है।" अनवर मियां कुछ पशोपश में थे। "दरअसल अभी हाल ही में जो किस्से-कहानी के मद्देनजर हमारे पब्लिकेशन ने…
ContinueAdded by VIRENDER VEER MEHTA on October 28, 2017 at 12:54pm — 1 Comment
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