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घर में टूटी खाट

फटे हुए कपड़े हैं तन पर,
घर में टूटी खाट
बैठा उकड़ू बस बारिश की,
जोह रहा है बाट.
सूद समेत ले गए सब कुछ,
साहूकार हमारे,…
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Added by बसंत कुमार शर्मा on May 25, 2017 at 10:00am — 2 Comments

मैं

जब यहां खड़े हो रहे हैं
तुम्हारे साथ
मुझे नहीं पता क्या करना है
या कौन हूँ 
खो गया और टूटा हुआ
आदमी
बाहर जोड़े अपने
हाथ
मुझे नहीं पता
कब बारी है
मुझे बहा दिया गया 
आपके द्वारा 
कुचला और टूटा भी
अब मुझे नहीं पता कि मैं कौन हूँ ...

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by narendrasinh chauhan on May 24, 2017 at 12:30pm — 3 Comments

बया का घोंसला- दोहे

तिनका लेकर चौंच में, मन में भर उल्लास
बया बनाती घोंसला, जग में सबसे ख़ास

इक बबूल के पेड़ पर, बसा बया का गाँव
भरी दोपहर में मिले, उसको ठंडी छाँव

छन छन कर आती हवा, नहीं धूप का काम
मई जून में कर रही, बया वहाँ आराम

गर्मी, सर्दी, बारिशें, हो आँधी तूफ़ान
सदा बया का घोंसला, रहता सीना तान
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by बसंत कुमार शर्मा on May 24, 2017 at 9:46am — 4 Comments

ग़ज़ल नूर की - तेरे सदमे से उबर जाऊँगा,

२१२२/११ २ २/२२ (११२)

.
तेरे सदमे से उबर जाऊँगा,
न उबर पाया तो मर जाऊँगा.
.
अपनी ही मौत का इल्ज़ाम हूँ मैं
क्यूँ किसी ग़ैर के सर जाऊँगा.
.
मेरी बेटी! तू मुझे “भौ” कर के  
जब डरायेगी तो डर जाऊँगा.
.
बूँद रहमत की, फ़क़त एक ही बूँद  
काश बरसे तो मैं तर जाऊँगा.
.
आती सदियों की तलब की ख़ातिर
जाम कुछ “नूर” से भर जाऊँगा.  
.
निलेश "नूर"
.
मौलिक/ अप्रकाशित 

Added by Nilesh Shevgaonkar on May 23, 2017 at 7:00pm — 13 Comments

ग़ज़ल --इस्लाह के लिए (गुरप्रीत सिंह )

(2122-2122-2122-212)

पहले सूरज सा तपें खुद को ज़रा रोशन करें

फिर थमें मत फिर किसी को चाँद सा रोशन करें।

ये नहीं, कोई दिया बस इक दफ़ा रोशन करें

गर करें, बुझने पे उसको बारहा रोशन करें।

मेरी भी वो ही तमन्ना है जो सारे शह्र की

आप मेरे घर में आएं घर मेरा रोशन करें।

सामने है इक चराग़ और आप के हाथों में शमअ

आप किस उलझन में हैं जी?क्या हुआ? रोशन करें!

तीरगी के हैं नुमाइंदे सभी इस शह्र में

कौन है…

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Added by Gurpreet Singh jammu on May 23, 2017 at 10:04am — 21 Comments

ग़ज़ल

वज़्न - 221 1222 221 1222

पिजरे से परिंदे को आज़ाद नहीं करते ।

कुछ लोग मुहब्बत को आबाद नहीं करते ।।



फ़ितरत है पतंगों की शम्मा पे मचलने की ।

ऐसे जुनूं पे आलिम इमदाद नहीं करते ।।



वह दर्द मिटाने का वादा किया था वरना ।

रह रह के मुकद्दर को हम याद नही करते ।।



ज़ालिम की अदालत में सच पर गिरी है बिजली।

मालूम अगर होता फरियाद नही करते ।।



वो साथ निभाएंगे कहना है बहुत मुश्किल ।

वो वक्त कभी हम पर बर्बाद नहीं करते ।।



हसरत ही… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on May 23, 2017 at 1:28am — 7 Comments

विश्वास ...

विश्वास ....

क्या है विश्वास

क्या वो आभास

जिसे हम

केवल महसूस कर सकते हैं

और गुजार देते हैं ज़िंदगी

सिर्फ़ इस यकीन पर कि

एक दिन तो

उसे हम स्पर्श कर लेंगे

छू लेंगे एक छलांग में

आसमान को

या

वो है विश्वास

जिसे हम जानते हुई भी

कि वो

चाहे कितना भी

हमारी साँसों के करीब क्यूँ न हो

छोड़ देगा

हमारा साथ

निकल जाएगा चुपके से

हमारे क़दमों के नीचे से

जैसे

ज़मीन होने का…

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Added by Sushil Sarna on May 22, 2017 at 8:30pm — 2 Comments

ग़ज़ल - किस्से कहानी हो गए

२१२२ २१२२ २१२२ २१२ 

छोड़कर हमको किसी की जिंदगानी हो गए

ख्वाब आँखों में सजे सब आसमानी हो गए

 

प्रेम की संभावनाएँ थीं बहुत उनसे, मगर,

जब मिलीं नजरें परस्पर,शब्द पानी हो गए

 

वो उगे थे जंगलों में नागफनियों की तरह,

आ गए दरबार में तो…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on May 22, 2017 at 3:30pm — 16 Comments

तरही गजल (मुहब्बत में अगर कोई कभी बीमार हो जाये)

बह्र 1222 1222 1222 1222



कहीं जो खेत में कमबख्त खरपतवार हो जाये

जमीं हो लाख उपजाऊ मग़र बेकार हो जाये



ज़रा सच से अगर जो रूबरू अखबार हो जाये

जगे जनता वतन की और सज़ग सरकार हो जाये



कोई घर मे अगर जयचंद सा गद्दार हो जाये

इरादे हों भले मजबूत फिर भी हार हो जाये



दवा भी बेअसर हो वैद्य भी लाचार हो जाये

मुहब्बत में अगर कोई कभी बीमार हो जाये



करें सहयोग माँ के साथ जो सब घर के कामों में

तो फिर उसके लिये भी एक दिन इतवार हो… Continue

Added by नाथ सोनांचली on May 22, 2017 at 12:30pm — 20 Comments

जो चाहेगा वो हंस लेगा - डॉo विजय शंकर

बातें ,
वादे ,
इरादे ,
जब पूरे न हों
तो बात बदल दो ,
इरादे बदल दो ,
चुटकुले सुना दो,
लोगो को हंसा दो ,
इस पर हंस लो ,
उस पर हंस लो ,
जिस पर चाहो
उस पर हंस लो ,
खुद पर हंस लो।
खुद पर ?
खुद पर क्यों ?
नहीं , खुद पर मत हंसो।
ये काम कल कोई और कर लेगा ,
जो चाहेगा वो कर लेगा ,
जो चाहेगा वो हंस लेगा।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on May 22, 2017 at 12:28pm — 1 Comment

किसी मरते को जीने का वहाँ अधिकार हो जाए(तरही गजल)

1222 1222 1222 1222

किसी मरते को जीने का वहाँ अधिकार हो जाए

अगर सहरा में पानी का ज़रा दीदार हो जाए



ये गिरना भी सबक कोई सँभलने के लिए होगा

मिलेगी कामयाबी हौंसला हर बार हो जाए



वफ़ा करके नहीं मिलती वफ़ा सबको यहाँ यारो

किसी की जीत उल्फत में,किसी की हार जाए



कि खुलकर आज कह डालो दबी है बात जो दिल में

*बुरा क्या है हकीकत का अगर इज़हार हो जाए*



खमोशी को हमेशा ही समझते हो क्यों कमजोरी?

यही गर्दिश में इंसाँ का बड़ा औज़ार हो… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on May 22, 2017 at 9:00am — 17 Comments

गजल( वह जमीं पर आग यूँ बोता रहा)

2122  :    2122         212 

::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

वह जमीं पर आग यूँ बोता रहा

और चुप हो आसमां सोया रहा।1



आँधियों में उड़ गये बिरवे बहुत

साँस लेने का कहीं टोटा रहा।2



डुबकियाँ कोई लगाता है बहक

और कोई खा यहाँ गोता रहा।3



पर्वतों से झाँकती हैं रश्मियाँ

भोर का फिर भी यहाँ रोना रहा।4



हो…

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Added by Manan Kumar singh on May 22, 2017 at 8:27am — 7 Comments

बहती नदी (कविता)

बहती नदी से पूछा मैंने

बहती रहती हो थमती नहीं



देख मुझको वो मुस्कायी

बोली कुछ पल कुछ भी नहीं ।



देख हंसी उसकी फिर पूछा मैंने

बोलो न क्यों तुम रूकती नहीं



देख मेरी उत्सुकता वह बोली

अरे मेरी भोली सी बहना



रुक गयी तो कैसे चलेगा

खेतों का गागर कैसे भरेगा



सागर से फिर कौन मिलेगा

हरियाली से कौन बतियाईएगा



इतराती नहीं नारी हूँ मैं भी

चंचल हिरणी , मनभावन हूँ मैं भी



टकरा जाती हूँ चट्टानों… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on May 22, 2017 at 7:45am — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
बटा ग़िलाफ़ तलक माँ की उस रिजाई का (ग़ज़ल 'राज')

1212 1122 1212 22 (ग़ज़ल कतआ से शुरू है )

किसी की आँख से अश्कों की आशनाई का

किसी जुबान से लफ़्ज़ों की बेवफाई का

सुखनवरों का हुनर है जो ये समझते हैं

भला क्या रिश्ता है कागज से रोशनाई का

जमीन बिछ गई आकाश बन गया कम्बल

बटा ग़िलाफ़ तलक  माँ की उस रिजाई का

जहर भी पी गई मीरा  जुनून-ए-उल्फत में

न होश था न उसे इल्म जग हँसाई का

लगाम लग गई उसके फिजूल खर्चों पर

गया जो पैसा…

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Added by rajesh kumari on May 21, 2017 at 3:30pm — 13 Comments

ग़ज़ल नूर की- किसे गुरेज़ जो दो-चार झूठ बोले है,

१२१२/११२२/१२१२/२२ (११२)

.

किसे गुरेज़ जो दो-चार झूठ बोले है,

मगर वो शख्स लगातार झूठ बोले है.

.

चली भी आ कि तुझे पार मैं लगा दूँगी, 

हमारी नाव से मँझधार झूठ बोले है.

.

सवाल-ए-वस्ल पे करना यूँ हर दफ़ा इन्कार 

ज़रूर मुझ से मेरा यार झूठ बोले है.

.

कहानी ख़ूब लिखी है ख़ुदा ने दुनिया की,

कि इस में जो भी है किरदार, झूठ बोले है. 

.

पटकना रूह का ज़िन्दान-ए-जिस्म में माथा,

बिख़रना तय है प् दीवार झूठ बोले है.   

.

निलेश…

Continue

Added by Nilesh Shevgaonkar on May 21, 2017 at 9:33am — 25 Comments

जिजीविषा (लघुकथा)

“छह महीने होने आए, डॉक्टर साहब माई की सेहत में कोई खास अंतर तो दिख नही रहा!”

आश्रम के संचालक ने अपने आश्रम के नियमित डॉक्टर से चिंता बांटी, जो अभी अभी सब मरीज़ों का रुटीन चेकअप करके आश्रम स्थित छोटे से कमरे में आकर बैठें थे जो कि उनका आश्रम में क्लिनिक था।

“हाँ, विलास बाबू! है तो चिंता की बात, इतनी ऊँचाई से गिरी थी और उम्र भी है,आप खुद ही सोचिए।” डॉक्टर साहब में गोल-गोल शब्दों में स्पष्ट किया।

“हाँ आपने कहा तो था शहर ले जाने को, पर क्या करें हमारी विवशता है। वो तो आपका सहारा है…

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Added by Seema Singh on May 21, 2017 at 9:00am — 6 Comments

ग़ज़ल बह्र-22/22/22/2

उसने बस धन देखा है,
कब ये जीवन देखा है ।
टेसू छाया बाग़ों में,
उसका यौवन देखा है ।
देखी उसकी सूरत तो,
फिर से दरपन देखा है ।
जब-जब बरसे बादल तो,
भीगा तन-मन देखा है ।
उसकी बजती पायल पर,
खिल उठता मन देखा है ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on May 21, 2017 at 7:54am — 15 Comments

गज़ल

1222 1222 122

अना की बात में कुछ दम नहीं है ।

कहा किसने तेरा परचम नहीं है ।।



मिलेंगी कब तलक ये स्याह रातें ।

मेरी किस्मत में क्या पूनम नही है ।।



अभी तक मुन्तजिर है आंख उसकी ।

वफ़ा के नाम पर कुछ कम नहीं है ।।



चिरागे इश्क़ पर है नाज़ उसको ।

उजाला भी कहीं मध्यम नहीं है ।।



सजा देंगे हमे ये हुस्न वाले ।

हमारे हक़ का ये फोरम नहीँ है ।।



तेरी जुल्फों की मैं तश्वीर रख लूँ।

मगर मुद्दत से इक अल्बम नही है… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on May 21, 2017 at 6:06am — 3 Comments

दुनिया कहती है, मैं ऐसा हूँ। दुनिया कहती है, मैं वैसा हूँ॥

दुनिया कहती है,

मैं ऐसा हूँ।

दुनिया कहती है,

मैं वैसा हूँ॥

जेठ की दोपहरी

पसीने का एहसास,

ताम्र वर्ण की-

अतृप्त प्यास॥

तेरी काँख के गंध

जैसा हूँ॥



दुनिया कहती है,

मैं ऐसा हूँ।

दुनिया कहती है,

मैं वैसा हूँ॥

सही वक़्त, सही लोग

मिल नहीं पाए।

शब्द बिखरे रहे,

अर्थ मिल नहीं पाए॥

उनींदी रातों की,

सिलवटों जैसा हूँ॥



दुनिया…

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Added by SudhenduOjha on May 20, 2017 at 10:05pm — No Comments

टूटा पहिया (लघुकथा)/ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"ये मैं नहीं, तुम हो जो झुकते, डगमगाते टूट चुकी हो!"

"नहीं, यह सच नहीं! मीडिया और जनता तो यह कहती है कि तुम ही तो हो जिसकी यह हालत हुई है, समझीं!"



काठगाड़ी के आगे का पहिया ग़ायब था और उसी पर वे तीनों स्वयं को पहिया मानकर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहीं थीं।

दरअसल ग़रीबी और पर्यावरण-प्रदूषण लटकाये लोकतंत्र की यह काठगाड़ी खींचती भारत-माता बुढ़िया के वेष में सच्चाई जानने के लिए निकल पड़ीं थीं। उनके कानों में मीडिया और जनता के आरोप-प्रत्यारोप भी सुनाई देने लगे।

"इस… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on May 20, 2017 at 8:17pm — No Comments

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