Added by नाथ सोनांचली on May 12, 2017 at 12:00pm — 24 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on May 12, 2017 at 11:38am — 14 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on May 11, 2017 at 1:30pm — 13 Comments
२१२२, २१२२,२१२
.
बन गया वह राष्ट्र का सरदार क्या?
हो गए हैं स्वप्न सब साकार क्या?
.
सत्य से बढ़कर तो ईश्वर भी नहीं,
राष्ट्र क्या फिर मित्र क्या परिवार क्या?
.
राष्ट्र की सेवा सभी का धर्म है,
कर रहे हो तुम कोई उपकार क्या?
.
देख कर इक कोमलांगी के अधर,
कल्पना लेने लगी आकार क्या?
.
आचरण में धर्मग्रंथो को उतार,
बाद में दे ज्ञान उनका सार क्या.
.
निलेश "नूर"
.
मौलिक/ अप्रकाशित
Added by Nilesh Shevgaonkar on May 11, 2017 at 9:24am — 25 Comments
सूरज शोले छोड़ता ,पशु भी ढूँढे छाँव ।
दर खिड़की सब बंद है ,सन्नाटे में गाँव ।।
भीषण गरमी पड़ रही,पशु -मानव हैरान ।
भू जल भी घटने लगा, साँसत में है जान ।।
पारा बढ़ता जा रहा, सूख रहे तालाब ।
देखो गाँव महानगर , हालत हुई खराब ।।
पत्ते झुलसे पेड़ पर ,नीम बबूल उदास ।
पशु किसान सबको लगी, पानी की अब आस ।।
.
मौलिक एवं अप्रकाशित ।
Added by Mohammed Arif on May 11, 2017 at 8:30am — 14 Comments
2122 2122 2122 212
बेखुदी में यार मेरे याद आना छोड़ दो
मुस्कुराने की अदा है कातिलाना, छोड़ दो।1
सूखती-सी जो नदी उम्मीद की, बहती रही
कान में पुरवाइयों-सी गुनगुनाना छोड़ दो।2
ख्वाहिशों के दौर में थमती नहीं है जिंदगी
उँगलियों पर अब जरा मुझको नचाना छोड़ दो।3
चाँद ढलता जा रहा फिर है पड़ी सूनी गली
बेबसी में अब कभी मुझको बुलाना छोड़ दो।4
राह अपनी मैं चलूँ तुमको मुबारक रास्ते
अनकही बातें बता रिश्ते…
Added by Manan Kumar singh on May 10, 2017 at 9:11pm — 10 Comments
जीवन हमको बुद्ध का , देता है सन्देश |
रक्षा करना जीव की , दूर रहेगा क्लेश ||1||
भोग विलास व नारियां, बदल न पाई चाल |
योग बना था संत का, छोड़ दिया जंजाल ||2||
मन वीणा के तार को, कसना तनिक सहेज |
ढीले से हो बेसुरा , अधिक कसे निस्तेज ||3||
बंधन माया मोह का , जकड़े रहता पाँव |
जिस जिसने छोड़ा इसे , बसे ईश के गाँव ||4||
धन्य भूमि है देश की, जन्मे संत महान |
ज्ञान दीप से जगत का,हरे सकल अज्ञान ||5||
.…
Added by Chhaya Shukla on May 10, 2017 at 2:00pm — 9 Comments
“आंटी जी, अगर उस दिन आप ने मेरे सर पर हाथ न रखा होता तो पता नहीं मैं कहाँ होती”
“कीमत तो वो मेरी पहले ही लगा चुके थे,उस रोज़ तो बस पैसे देने ही आए थे ”।
“मुझ को तो कुछ पता ही नहीं चलने दिया था” ऋतू ये कहती जा रही थी।
“ये तो भला हो, मेरे साथ डांस पार्टी में काम करने वाली सुनीता का,
"उस बता दिया मुझको कि मालिक तो मेरे पैसे ले रहा हैं, कल तुम किसी और डांस पार्टी में काम करोगी "
"तब मुझे आप के पास तो आना ही था, आंटी जी"
“घर से तो अमली ने पहले ही…
ContinueAdded by मोहन बेगोवाल on May 10, 2017 at 12:30pm — 8 Comments
Added by Hemant kumar on May 10, 2017 at 11:47am — 8 Comments
एक नवगीत
गायब हैं नकली रंगों में,
होली के हुडदंग.
नजर न आती आसमान में,
उड़ती हुई पतंग.
पड़ी ठण्ड जब रहे सिकुड़ते,
मिली न छत सबको,
मई जून में खूब तपाया,
सूरज ने…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on May 10, 2017 at 9:31am — 6 Comments
( दूसरे शेर के ऐब ए तनाफुर को कृपया स्वीकार करें )
2122 1212 22/112
ज़ह’नियत यूँ न बरहना करिये
अपने जामे में ही रहा करिये
आब ठंडक ही दे हमें हरदम
आग, गर्मी ही दे दुआ करिये
बेवफा हो गये हैं जो साबित
उनसे क्या खा के अब वफ़ा करिये
जुगनुओं की चमक चुरायी है
शम्स ख़ुद को न अब कहा करिये
सिर्फ बीमार कह के चुप न रहें
इब्न ए मरियम हैं, तो शिफ़ा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 10, 2017 at 8:00am — 12 Comments
Added by Samar kabeer on May 9, 2017 at 11:30pm — 26 Comments
212 212
झाँकती रह गई |
ताकती रह गई |
चाँद तारे बना
टाँकती रह गई |
अंत है कब कहाँ
आँकती रह गई |
चाशनी हाथ ले
बाँटती रह गई |
साँच को आँच थी
हाँकती रह गई |
रेत में जब फँसी
हाँफती रह गई |
प्यास कैसे बुझे
बाँचती रह गई |
(मौलिक अप्रकाशित)
Added by Chhaya Shukla on May 9, 2017 at 9:30pm — 12 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 9, 2017 at 7:00pm — 17 Comments
स्मृति पृष्ठ ...
रजनी के
श्यामल कपोलों पर
मेघों की बूंदों ने
व्यथित यादों के
पृष्ठों पर जैसे
सान्तवना का
आभासीय श्रृंगार कर डाला
दृग कलशों से
सजल वेदना
प्रीत की
पराकाष्ठा को
चेहरे की लकीरों में
शोभित करती रही
प्राण और देह में
जीवन संघर्ष चलता रहा
किसी को विस्मरण करने के
सभी उपचार
रेत की भित्ति से
ढह गए
थके नयन
आशा क्षणों की
गहन कंदराओं में…
Added by Sushil Sarna on May 9, 2017 at 3:59pm — 13 Comments
2122 2122 212
कार्ड काफी था न लॉगिन के लिए
वो हमे भी ले गए पिन के लिए
चाँद पर जाकर शहद वो खा रहे
आप अब भी रो रहे जिन के लिए
शेर को आता है बस करना शिकार
फूल जंगल में खिले किन के लिए
गुठलियों के दाम भी वो ले गया
उसने शीरीं आम जब गिन के लिये
आ गई अब ब्रेड में बीमारियाँ
जी रहे थे क्या इसी दिन के लिए
आये थे जापान से कल लौट कर
फिर उड़े वो रूस बर्लिन के लिए
पास पप्पू एक दिन हो…
Added by Ravi Shukla on May 9, 2017 at 11:46am — 27 Comments
मापनी -१२२२ १२२२ १२२
कोई रिश्ता निभाया जा रहा है
मुझे फिर से बुलाया जा रहा है
भले ही खिड़कियाँ हैं बंद घर की,
मगर परदा उठाया जा रहा है
पड़ीं हैं नींव में चुपचाप ईंटे,
भले बोझा बढाया जा रहा…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on May 9, 2017 at 10:00am — 19 Comments
२१२२/२१२२/२१२
.
दर्पणों से कब हमारा मन लगा
पत्थरों के मध्य अपनापन लगा.
.
लिप्त है माया में अपना ही शरीर
ये समझ पाने में इक जीवन लगा.
.
तप्त मरुथल सी ह्रदय की धौंकनी
हाथ जब उस ने रखा चन्दन लगा.
.
मूर्खता पर करते हैं परिहास अब
जो था पीतल वो हमें कुन्दन लगा.
.
प्रेम में भी कसमसाहट सी रही
प्रेम मेरा आपको बन्धन लगा.
.
जल रहे हैं हम यहाँ प्रेमाग्नि में
और उस पर ये मुआ सावन लगा.…
Added by Nilesh Shevgaonkar on May 9, 2017 at 10:00am — 37 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on May 8, 2017 at 8:00pm — 10 Comments
221 1221 1221 122
***
उल्फत न सही बैर निभाने के लिए आ
चाहत के अधूरे से फ़साने के लिए आ
.
चाहत भरी दस्तक भी सुनी थी कभी दिल ने
वीरानियों को फिर से बसाने के लिए आ
.
शब्दों की कमी तो मुझे हरदम ही रही है
खामोश ग़ज़ल कोई सुनाने के लिए आ
.
सागर ये गमों का कहीं तट तोड़ न जाए
ऐ राहते जां बांध बनाने के लिए आ
.
रौशन दरो दीवार है झिलमिल है सितारे
ऐ चाँद मेरे मुझको…
Added by अलका 'कृष्णांशी' on May 8, 2017 at 4:00pm — 10 Comments
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