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कोई राधा हुई दीवानी क्या (ग़ज़ल 'राज' )

2122  1212  22

जिन्दगी की नई कहानी क्या

हर कोई जानता बतानी क्या

 

मौत  के सामने कोई बचपन

या बुढ़ापा भला जवानी क्या

 

होंसलों से उगा शज़र उसको

ख़ास आबो हवा या पानी क्या

 

तिश्नगी इक नदी बुझाती थी

आज सहरा में है निशानी क्या 

 

कृष्ण देखा है आज क्या तुमने

कोई राधा हुई दीवानी क्या

 

फूल अगर हैं वतन के गुलशन के

फिर हरे और जाफ़रानी क्या

 

गर हो नाज़िम ही कान के…

Continue

Added by rajesh kumari on December 5, 2016 at 6:30pm — 21 Comments

हाल अपना भी (ग़ज़ल)

2122 2122 212,

आइए कुछ तो सुनाते जाइए।

हाल अपना भी बताते जाइए। 1

-----

लोग तो बातें बनायेगें बहुत,

झूठ पर भी मुस्कुराते जाइए। 2

-----

आप अपनी बात पर कायम रहें,

निर्धनो के घर बसाते जाइए। 3

-----

आप अनदेखा न यूँ हमको करें,

रूठ बैठा दिल मनाते जाइए। 4

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डालकर हम पर नजर बस इक जरा,

प्यार का अरमां सजाते जाइए। 5

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आपके सपने हमारे नींद में,

होश खोए है जगाते जाइए। 6

------

ये सँवरना आपके ही है… Continue

Added by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on December 4, 2016 at 1:30pm — 7 Comments

ग़ज़ल ( वो वादे से अपने मुकर जाएगा )

ग़ज़ल ( वो वादे से अपने मुकर जाएगा )

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फऊलन -फऊलन -फऊलन -फअल

ख़बर थी किसे एसा कर जाएगा |

वो वादे से अपने मुकर जाएगा |

न अब और ले इम्तहाने वफ़ा

ये दीवाना हद से गुज़र जाएगा |

चला तीर तिरछी नज़र का अगर

बचाएँगे दिल तो जिगर जाएगा |

बपा हश्र हो जाएगा उस जगह

वो जिस रास्ते पर ठहर जाएगा |

करेगा सितम के जो दौरान उफ़

निगाहों से उनकी उतर जाएगा…

Continue

Added by Tasdiq Ahmed Khan on December 4, 2016 at 10:05am — 14 Comments

गजल(चिल्लाना क्या सन्नाटा है...)मच रही चिल्ल-पों पर

22222222
चिल्लाना क्या सन्नाटा है,
कह तो क्यूँ रे हकलाता है?1

जोड़ रहा तू कागज कितने
मुँह पर आज पड़ा चांटा है।2

लूट लिया जिसका धन तूने
फिर से काम वही आया है।3

चोर-सिपाही खेल, बता अब
किसके हित अर्थ जुटाया है?4

हँस-हँस कर का मैल बटोरा,
रोने का मौसम आया है।5

लूट लिये कितनों के सपने
अपना जाकर अब टूटा है।6

उछला-कूदा ढ़ेर जगह,पर
गड़ता जाता अब खूँटा है।7
मौलिक व अप्रकाशित @मनन

Added by Manan Kumar singh on December 4, 2016 at 8:01am — 10 Comments

सब्र है सबसे बड़ा जऱ दोस्तो(तरही ग़ज़ल)/सतविन्द्र कुमार राणा

बह्र :2122 2122 212

---

उसने नगमा एक गाया देर तक

ऐसे ही हमको सुनाया देर तक।



सब्र है सबसे बड़ा जर दोस्तो

आलिमों ने यह सुझाया देर तक।



इश्क है वो रास्ता जो पाक है

सोच कर मन में बिठाया देर तक।



भाग उनके ही भले सब मानते

हो बड़ों का जिनपे साया देर तक।



भूख से तड़पा बहुत है यार वो

इसलिए उसने यूँ खाया देर तक।



भूलने की सोच कर आगे बढ़ा

भूल मैं उसको न पाया देर तक।



साथ चलने की कसम खाता रहा

आस में मुझको… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on December 4, 2016 at 6:30am — 15 Comments

मुखौटा

मुखौटा

संसद से सड़क तक

फैले हुए मुखौटे मुँह चिढ़ाते हैं मुझे

और मैं हंसकर उनकी उपेक्षा कर देता हूँ

और मुझसे यह अपेक्षा की भी जाती है !

आखिर वो भी तो मेरी - - - सी स्सस्सस्सीईई

ढाँप लेता हूँ

कम्बल बढ़ने लगी है सर्दी

पहन लेता हूँ मुखौटा

बढ़ने लगी है भीड़ सी--- सीईईईईईईई !

सोमेश कुमार(मौलिक एवं अप्रकाशित )

Added by somesh kumar on December 3, 2016 at 11:38pm — 3 Comments

स्वीकार कोई कैसे करे

स्वीकार तो पहले भी कहाँ था 
लेकिन तब स्थिति ऐसी कहाँ थी 
अब तक सर हिलाने की…
Continue

Added by amita tiwari on December 3, 2016 at 7:18pm — 7 Comments

लोकतंत्र

लोकतंत्र में
लोक नहीं होता
होता है
तो सिर्फ तंत्र
जो करता है शासन
पूँजीपतियों के लिए
नेताओं के द्वारा
नौकरशाहों से मिल
मीडिया के साथ
जनता के नाम से
जनता के ऊपर
न्याय
स्वतंत्रता
समता
और व्यक्ति की
गरिमा का
चेहरा लगा कर
लोकतंत्र में
लोक नहीं होता
होता है
तो सिर्फ तंत्र!

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Mahendra Kumar on December 3, 2016 at 7:00pm — 12 Comments

दायित्व

पिता की मृत्यु के बारह दिन गुज़र गये थे, नाते-रिश्तेदार सभी लौट गये। आखिरी रिश्तेदार को रेलवे स्टेशन तक छोड़कर आने के बाद, उसने घर का मुख्य द्वार खोला ही था कि उसके कानों में उसके पिता की कड़क आवाज़ गूंजी, "सड़क पार करते समय ध्यान क्यों नहीं देता है, गाड़ियाँ देखी हैं बाहर।"

 

उसकी साँस गहरी हो गयी, लेकिन गहरी सांस दो-तीन बार उखड़ भी गयी। पिता तो रहे नहीं, उसके कान ही बज रहे थे और केवल कान ही नहीं उसकी आँखों ने भी देखा कि मुख्य द्वार के बाहर वह स्वयं खड़ा था, जब वह बच्चा था जो डर के…

Continue

Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on December 3, 2016 at 6:58pm — 9 Comments

गीत(रोला छ्न्द)/सतविन्द्र कुमार राणा

गीत (रोला छ्न्द)

-----

सबपर उसका नेह,प्रकृति प्यारी है माता

खिलता हरसिंगार,रात में सुन ले भ्राता।



पँखुड़ी निर्मल श्वेत,मोह सबका मन लेती

सुंदरता है नेक,नयन को यह सुख देती

केसरिया है दंड,रंग जिसका चमकीला

हुआ मुग्ध मन देख,प्रकृति की ऐसी लीला

पुलकित होकर आज ,हृदय इसके के गुण गाता

खिलता हरसिंगार रात में सुन ले भ्राता।



देखो ज्यों ही तात, प्रात की बेला आए

अवनी पर तब पुष्प,सभी जाते छितराए

सुन्दर हरसिंगार,उठालो इनको चुनकर

बनते… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on December 3, 2016 at 6:00pm — 9 Comments

"भोपाल- तीन दिसम्बर" -मेरे सर्वप्रथम हाइकू : अर्पणा शर्मा

गैस त्रासदी,
पीड़ित मानवता,
कराह उठी...!!

भीड़ उन्मादी,
कारखाने बाहर,
देखे बर्बादी,

की है मुनादी
मिलेगा मुआवजा,
क्या है ये काफी???

कैसे भगाया,
एंड़रसन यहाँ,
है अपराधी,

नासूर से ही,
जख़्म यहाँ रिसते
वर्षों बाद भी,

बही थी यहाँ,
भूलेगा नहीं कभी,
मौत की नदी...!!!

मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Arpana Sharma on December 3, 2016 at 4:00pm — 5 Comments

तुमको गीतों में ढाला तो ये कागा भी कुहक उठा- पंकज द्वारा गीत

तेरा नाम लिखा जो प्रियतम,पन्ना पन्ना महक उठा।

तुझको गीतों में ढाला तो, ये कागा भी कुहक उठा।।



मेरे शब्दों में खालीपन, एक उदासी छाई थी।

मुर्दों से बिछते कागज़ पर, मरघट सी तन्हाई थी।।



तेरा रूप उकेरा जब तो, कोहेनूर सा दमक उठा।

तुझको गीतों में ढाला तो, ये कागा भी कुहक उठा।।1।।



मैं तो ठहरा एक बावरा, इस उपवन उस उपवन भटका।

ढूँढा तुझको यहाँ वहाँ, पर माया वाले जाल में अटका।।



तेरा रूप सुमन जो महका, मन का पंछी चहक उठा।

तुझको गीतों में ढाला… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on December 2, 2016 at 4:30pm — 17 Comments

ग़ज़ल (साँस को छोड़ना भी मना है)

ग़ज़ल (साँस को छोड़ना भी मना है)

(2122 122 122)

बोलना बात का भी मना है,
साँस को छोड़ना भी मना है।

दहशतों में सभी जी रहे है,
दर्द का अब गिला भी मना है।

ख्वाब देखे कभी जो सभी ने,
आज तो सोचना भी मना है।

जख्म गहरे सभी सड़ गये हैं,
खोलना घाव का भी मना है।

सब्र रोके नहीं रुक रहा अब,
बाँध को तोड़ना भी मना है।

अब नहीं है 'नमन' का ठिकाना,
आशियाँ खोजना भी मना है।


मौलिक व अप्रकाशित

Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on December 2, 2016 at 12:00pm — 8 Comments

ग़ज़ल : उस्तरा हमने दिया है बंदरों के हाथ में

बह्र : 2122 2122 2122 212

 

आदमी की ज़िन्दगी है दफ़्तरों के हाथ में

और दफ़्तर जा फँसे हैं अजगरों के हाथ में

 

आइना जब से लगा है पत्थरों के हाथ में

प्रश्न सारे खेलते हैं उत्तरों के हाथ में

 

जोड़ लूँ रिश्तों के धागे रब मुझे भी बख़्श दे

वो कला तूने जो दी है बुनकरों के हाथ में

 

छोड़िये कपड़े, बदन पर बच न पायेगी त्वचा

उस्तरा हमने दिया है बंदरों के हाथ में

 

ख़ून पीना है ज़रूरत मैं तो ये भी मान लूँ

पर…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 2, 2016 at 10:23am — 16 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - तफ़्सील में गये तो वो ख़ुद से ख़फ़ा मिले ( गिरिराज भंडारी )

221 2121   1221   212 

जो खोजते हैं रोज़ कोई मुद्दआ मिले

तफ़्सील में गये तो वो ख़ुद से ख़फ़ा मिले

 

नफरत मिली है देखिये नफरत से इस तरह  

मजबूरियों में तेल ज्यूँ पानी से जा मिले

 

हारे हुए मिलेंगे जहाँ खार कुछ तुम्हें

मुमकिन है उस जगह से मिरा भी पता मिले"  

 

हम दिल से चाहते हैं उन्हें दाद हो अता 

जो नेवले की जात हो, साँपों से जा मिले

 

बादल बरस के साथ ही ऐलान कर गया

क़िस्मत ही फैसला करे, अब तुझको क्या…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on December 2, 2016 at 9:30am — 28 Comments

ग़ज़ल - अश्क़ आए तो निगाहों को सज़ा क्या दोगे

2122 1122 1122 22



अश्क आए तो निगाहों को सजा क्या दोगे ।

है पता खूब वफाओं को सिला क्या दोगे।।



खत जो आया था मुहब्बत की निशानी लेकर ।

लोग पूछें तो जमाने को बता क्या दोगे ।



सुन लिया मैंने तेरे प्यार के किस्से सारे ।

टूट जाए जो मेरा दिल तो खता क्या दोगे ।।



मेरी किस्मत ने मुझे जब भी पुकारा होगा ।

मुझको मालूम मेरे घर का पता क्या दोगे ।।



आशियाँ जब भी उजाड़ोगे तो मुश्किल होगी ।

तेरी हस्ती ही नही मुझको हटा क्या दोगे…

Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on December 2, 2016 at 2:30am — 16 Comments

गजल(दाँव पर लगता रहा मैं....)

बंद हुए बैंक नोट का आत्मकथ्य

दाँव पर लगता रहा मैं
आँख में सबकी बसा मैं।1

रूप बदला, रंग बदला,
रात-दिन चंचल चला मैं।2

बन जिगर का पुरशकूं क्षण
घर भरा,कितना सहा मैं।3

फिर चलन से दूर होकर
बे-चलन अब हो गया मैं।4

रो रहा,जगता 'बटोरू',
चैन से अब सो रहा मैं।5
मौलिक व अप्रकाशित@मनन

Added by Manan Kumar singh on December 1, 2016 at 4:30pm — 10 Comments

ग़ज़ल- यूँ निभाते हैं यहाँ फर्ज निभाने वाले

2122 1122 1122 22

मांग इनसे न दुआ जख़्म दिखाने वाले ।

दौलते हुस्न में मगरूर ख़जाने वाले ।।



जो निगाहों की गुजारिश से खफा रहता है ।

कितने जालिम हैं अदाओं से जलाने वाले ।।



एक मुद्दत से तेरी राह पे ठहरी आँखें ।

क्या मिला तुझ को हमे छोड़ के जाने वाले ।।



था रकीबों का करम शाख से टूटा पत्ता ।

यूं निभाते है यहां फर्ज ज़माने वाले ।।



टूट जाते है वो रिश्ते जो कभी थे चन्दन ।

इश्क़ क्यों जुर्म है मजहब को चलाने वाले ।।



मेरी…

Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on December 1, 2016 at 4:00pm — 13 Comments

कुण्डलिया छंद - लक्ष्मण रामानुज

कुण्डलिया छंद 
=========
तिल हो गोरे गाल पर, निखरे गोरे गाल,
अला बला फटकें नहीं, किसकी गलती दाल
किसकी गलती दाल, पस्त हो सबकी हिम्मत 
रखें फटें में पाँव, कौन की खोटी किस्मत | 
चन्दा के भी दाग, सिन्धु में प्रेम सलिल हो 
सुन्दरता का चिन्ह, अगर गौरी के तिल हो |

- लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला

Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 1, 2016 at 3:30pm — 10 Comments

हो गया हूँ बुरा

करता रहा समझौता
सहता रहा चुपचाप सब
जब तक मैं
तब तक
अच्छा था सबकी
नज़रों में बहुत
हाँ, तुम्हारी भी तो
पर आज जब मैंने सच बोला
बोल दिया झूठ को झूठ
तो हो गया हूँ बुरा
सबसे बुरा
गिर गया हूँ गहरे
कहीं बहुत गहरे
सबकी नज़रों से
और हाँ, तुम्हारी भी तो!

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Mahendra Kumar on December 1, 2016 at 1:30pm — 10 Comments

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