कजरे गजरे झाँझर झूमर , चूनर ने उकसाया था
हार गले के टूट गये सब , ऐसा प्यार जताया था
हरी चूड़ियाँ टूट गईं , क्यों सुबह-सुबह तुम रूठ गईं
कल शब तुमने ही तो मुझको , अपने पास बुलाया था
जितनी करवट उतनी सलवट, इस पर काहे का झगड़ा
रेशम की चादर को बोलो , किसने यहाँ बिछाया था
हाथों की मेंहदी ना बिगड़ी और महावर ज्यों की त्यों
होठों की लाली को तुमने , खुद ही कहाँ बचाया था
झूठ कहूँ तो कौवा काटे…
Added by अरुण कुमार निगम on July 14, 2013 at 7:30pm — 13 Comments
रचना पूर्व प्रकाशित होने के कारण, लेखिका से वार्ता के पश्चात हटा दी गई है ।
एडमिन
Added by shashi purwar on July 14, 2013 at 5:30pm — 14 Comments
जेल जाय अपराध में, करते वे पद त्याग,
जन प्रतिनिधि क़ानून में,इससे उल्टा राग |
संविधान में निहित है, मूलभूत अधिकार,
सबको समान हक़ मिले, भेद करे सरकार |
रुपया गिरता देखकर, डालर मुंह बिचकाय,
बढे कर्ज के बोझ से, चिंता घेरे जाय |
कर्ज विदेशी बढ़ रहा, इधर तेल के दाम,
काला धन स्विस बैंक में,भुगते जन अंजाम|
रकम जमा स्विस बैंक में, घरवाले अनजान,
भेद दिए बिन चल बसे, घर के सब हैरान|
(मौलिक…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 14, 2013 at 4:00pm — 12 Comments
माँ वो है-
जो जन कर जुड़ जाती है
चेतना के अंधकूपों में भी
अपने जने का करती है पीछा,
एक सूत्र बन कर संतति से हो जाती है तदाकार,
पालना ही जिसका
सार्वत्रिक,सार्वभौमिक और शाश्वत संस्कार;
शायद इसीलिए हमारे
उन दिग्विजयी पड़दादाओं ने
तेरे कगारों पर दण्डवत कर के
उर्मिल जल की
अँजुरी भर के
कोई संकल्प किया था
और बुदबुदाये थे कितने ही मंत्र अनायास
तुझे माँ कह कर।
वो शायद आदिम थे
इसीलिए भ्रमित थे,असभ्य थे
और हम सभ्य…
Added by Ravi Prakash on July 13, 2013 at 5:30pm — 10 Comments
Added by vijay nikore on July 13, 2013 at 3:00pm — 36 Comments
कभी सपने सज़ाता है कभी आंसू बहाता है
खुदा दिल चीज़ कैसी है जो पल में टूट जाता है
ये उठते को गिराता है व गिरते को उठाता है
अरे ये वक्त ही तो है सदा हमको सिखाता है
मेरी ज़र्रा नवाज़ी को न कमज़ोरी समझना तुम
अदाकारी परखने का हुनर हमको भी आता है
जो ज़ेरेख्वाब ही मदमस्त हो अपने लिए जीता
ये आदमजात है भगवान को भी भूल जाता है
मै रोऊँ या हंसूं मंज़ूर पर उसको ही लेकर के
भला क्यों आज भी हम पर वो इतना हक जताता है…
Added by Anurag Singh "rishi" on July 13, 2013 at 11:00am — 21 Comments
जो चिरागों की लौ में पिघलता है
वो हसरतों को रौ में बदलता है .
तेरे वजूद पे भरोसा है जिसको
आस्माँ से गिर कर भी सँभलता है.
ख्व़ाब जो नींदों के पार रहता है
वो जागती आँख में मचलता है .
चाँद है ,तारे हैं, तन्हाइयाँ भी हैं
ये दिल किसे ढूँढने निकलता है.
हर कदम गुजरा इम्तहाँ से मेरा
हर मोड़ पर रास्ता बदलता है .
हासिल ए हयात अब भी बाकी है
सिर्फ याद से दिल नहीं बहलता है
.
-ललित…
ContinueAdded by dr lalit mohan pant on July 13, 2013 at 2:30am — 6 Comments
बहर : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
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ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर कारखानों पर
ये फन वरना मिलेगा जल्द रद्दी की दुकानों पर
कलन कहता रहा संभावना सब पर बराबर है
हमेशा बिजलियाँ गिरती रहीं कच्चे मकानों पर
लड़ाकू जेट उड़ाये खूब हमने रातदिन लेकिन
कभी पहरा लगा पाये न गिद्धों की उड़ानों पर
सभी का हक है जंगल पे कहा खरगोश ने जबसे
तभी से शेर, चीते, लोमड़ी बैठे मचानों पर
कहा सबने बनेगा एक दिन…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 12, 2013 at 11:46pm — 21 Comments
मन सिहरा ,ठहरा तनिक ,देखा अप्रतिम रूप ,
भोर सुहानी ,सहचरी ,पसर गई लो, धूप !
रश्मि-रश्मि मे ऊर्जा और सुनहरा घाम,
बिखर गया है स्वर्ण-सुख लो समेट बिन दाम !
सुन किलकारी भोर की विहंसी निशि की कोख ,
तिमिर गया ,मुखरित हुआ जीवन में आलोक !
उगा भाल पर बिंदु सा लो सूरज अरुणाभ ,
अब निंदिया की गोद में रहा कौन सा लाभ !
_______________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल ,लखनऊ
(मौलिक और अप्रकाशित )
Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 12, 2013 at 11:00pm — 11 Comments
अन्तर्मन की लौ अति उज्ज्वल
निश-दिन प्रेम बढ़ाए, प्रकृति अमरता लाए।
गुलमोहर की चुनरी ओढ़ी
पटका अमलतास पीताम्बर
लचकारा लटकाए, झूम-झूम हरषाए।
धानी वाली साड़ी झिल-मिल
घूंघट में आभा छवि पाकर
गाल गुलाल उड़ाए, आंचल किरन सजाए।
सुन्दर सूरत प्यारी मूरत
माथे की बिन्दी चन्द्राकर
घुंघर केश मुख छाए, शबनम भाल थिराए।
अंधड़-लू से कांवरि दौड़े
सांय-सांय शहनाई संजर
डोली जिय धड़काए, मछली मन…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 12, 2013 at 10:00pm — 15 Comments
बेशक तुमने देखी नही दुनिया
बेशक तुम अभी नादान हो
बेशक तुम आसानी से
हो जाती हो प्रभावित अनजानों से भी
बेशक तुम कर लेती हो विश्वास किसी पर…
ContinueAdded by anwar suhail on July 12, 2013 at 9:00pm — 9 Comments
पीढ़ियों का अंतर
पीढियों के अंतर में कसक भरी तड़पन है
इनकी अंतरव्यथा में गहरी चुभन है
जिंदगी की सांस् सिसकियों में सिमटी जा रही है
जिसमें खुशनुमा सी सुबह धुंधली होती जा रही है
दादा दादी, नाना नानी ,पोते पोती ,नाती नातिनें
मिलजुल कर प्यार से रहने के वो रिवाज़औरस्में
क्यूँ आ गई है दीवारें इनमें
कैसे पाटा जायेगा ये अंतर हमसे
ये अंतर घर परिवार की खुशियों को खा रहा है
ऐसा पहले तो नहीं था अब कहाँ से आ रहा…
ContinueAdded by vijayashree on July 12, 2013 at 4:00pm — 8 Comments
ये भोर
काली रात के बाद
अब भी सिसकती है
यादों के ताजे निशाँ
सूखे ज़ख़्मों को
एक टक ताकती
उसे नहीं पता
आने वाली शाम और
रात कैसी होगी
पता है तो बस
बीता हुआ कल
वो बीता हुआ कल
जो निकला था
उसकी कसी हुई मुठ्ठी से
रेत की तरह
देखते देखते
रेत की तरह
भरी दोपहर में
तपते रेगिस्तान में
ज्यों छलती है रेत
मृग मारीचिका की तरह
मृग मारीचिका
जिससे भान होता है
पानी का
हाँ…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 12, 2013 at 1:54pm — 9 Comments
******* बेवफाई ********
दोस्ती का हक़ तो मैंने अदा किया
पर उसने मुझे कुछ दगा सा दिया
जाने किस बात पे वो था रुका
किस बात पे जाने भुला वो दिया
दोस्ती…
ContinueAdded by Atendra Kumar Singh "Ravi" on July 12, 2013 at 12:30pm — 6 Comments
प्रचंड गंग धार यूँ बढ़ी बहे बड़े बड़े
बहे विशाल वृक्ष जो थे उंघते खड़े खड़े
बड़ी बड़ी शिलाओं के निशान आज मिट गये
न छत रही न घर रहा मचान आज मिट गये
हुआ प्रलय बड़ा विकट किसान आज मिट गये
सुने किसी की कौन के प्रधान आज मिट गये
पुजारियों के होश भी लगे हमें उड़े उड़े
प्रचंड गंग धार यूँ बढ़ी बहे बड़े बड़े
मदद के नाम पे वो अपने कद महज बढ़ा रहे
खबर की सुर्ख़ियों का वो यूँ लुत्फ़ भी उड़ा रहे
वहीं घनेरे मेघ काले छा के फिर चिढ़ा…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 12, 2013 at 12:28pm — 9 Comments
अनाद्यानंत आकाश में तैरते
Added by Dr.Prachi Singh on July 12, 2013 at 12:00pm — 30 Comments
जीवन में हर रंग दिखाता ये पल्लू
सर पर तो पूरित हो जाता है पल्लू
गर्मी में चेहरे का पसीना पौंछता
सावन में छतरी बन जाता है पल्लू
जब- तब शादी में गठबंधन करवाता
दो जीवन को एक बनाता ये पल्लू
झोली बन कर आखत अर्पण करवाता
फिर घूँघट की शान बढाता है पल्लू
कभी कभी नव शिशु का झूला बन जाता
आँखों से…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 12, 2013 at 12:00pm — 26 Comments
रचना ओ बी ओ नियमानुसार न होने और लेखक के अनुरोध पर हटा दी गई है |
एडमिन
2013071407
Added by Neeraj Nishchal on July 12, 2013 at 11:30am — 12 Comments
ऊब गया मैं ऊब गया
रोज किताबों को पढ़कर !
भाषा की सरल किताबों में
जब व्याकरण की मार पड़ी
छंद विधानों में उलझा
तब जोड़ न पाया कोई लड़ी…
ContinueAdded by Satyanarayan Singh on July 12, 2013 at 11:00am — 8 Comments
ऐ प्रकृति तू धर शरीर
ले जन्म किसी माँ की कोख से !!
.
जब तुझे लगेगी चोट
बहेगा लहू तेरे शरीर से
या बीच राह में कोई
दाग लगेगा आबरू पे कोई
जब जागेगा ये मानव कही
रक्षा को तेरी तभी
ऐ प्रकृति तू धर शरीर !!
.
वैसे तो कुछ दिनों का होगा जोश
मानव का मानव के लिए
मगर इस बहाने ऐ प्रकृति
तेरा ख्याल तो आयेगा
वरना ये शातिन प्राणी
अपने स्वार्थ के लिए
तुझको ही ये लूटता जायेगा
ऐ प्रकृति तू धर शरीर
ले…
Added by Sumit Naithani on July 12, 2013 at 9:30am — 10 Comments
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