प्रेम की गुनगुनी धूप है
सूर्य तो बस सुधा कूप है
हंस रहा रश्मियाँ भेजकर
तीर्थ के दीप सा बल रहा
कष्ट में पुष्प सा खिल गया
अनगिनत विश्व का छंद है
कांति का शांति का रूप है
सूर्य तो बस सुधा कूप है
ब्रह्म के कण विचरते हुए
बल तेरा मिल गया हर दिशा
शून्य में रूप तू इष्ट का
अस्त पर व्यस्त तू फिर कहीं
कर्म का धर्म का यूप है
सूर्य तो बस सुधा कूप है
सृष्टि के पुत्र का…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 19, 2014 at 3:50am — 20 Comments
नये साल के नये माह का
मौसम आया..
लेकिन सूरज भौंचक
कितना घबराया है !
चटख रंग की हवा चली है
चलन सीख कर..
खेल खेलती, बंदूकों के राग सुनाती
उनियाये कमरों में बच्चे रट्टा…
Added by Saurabh Pandey on December 19, 2014 at 3:31am — 20 Comments
अतुकांत कविता : केसर के फूल
चौक गया
यह देखकर
स्कूल के फर्श पर
फैला गाढ़ा रंग
बिलकुल वैसा ही था
जैसा
कुछ वर्ष पहले था
मुंबई के प्लेटफॉर्म पर
कोई अंतर नहीं
एकदम सुर्ख़ लाल रंग
उपजाऊ भूमि
बो दिया बारूद
इस उम्मीद में
कि .........
केसर फूलेंगे ।
(मौलिक व अप्रकाशित)
पिछला पोस्ट…
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 19, 2014 at 12:00am — 24 Comments
कली तुझसे पूछूँ एक बात,
की जब होती है आधी रात,
कौन भवंरा बनके चुपचाप,
तेरी गलियों में आता है !!
कली से काहे पूछे बात,
की जब होती है आधी रात,
मैं महकती रहती हूँ चुपचाप,
बिचारा खिंच-खिंच आता है !!
कभी करता है मिलन की बात ,
सह काटों के आघात वो आधी रात,
नैन से नैन मिला कर चुपचाप,
वो भवंरा खुद शरमा जाता है !!
सखी क्या कह दूँ दिल की बात ,
की अब तो ढलती जाए रात,
नैनों के…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on December 19, 2014 at 12:00am — 6 Comments
Added by Neeraj Nishchal on December 18, 2014 at 11:32am — 8 Comments
तुझे पा लिया है जग पा लिया है
अब दिल में समाने लगी जिंदगी है
कभी गर्दिशों की कहानी लगी थी
मगर आज भाने लगी जिंदगी है
समय कैसे जाता समझ मैं ना पाता
अब समय को चुराने लगी जिंदगी है
कभी ख्बाब में तू हमारे थी आती
अब सपने सजाने लगी जिंदगी है
तेरे प्यार का ये असर हो गया है
अब मिलने मिलाने लगी जिंदगी है
मैं खुद को भुलाता, तू खुद को भुलाती
अब खुद को भुलाने लगी जिंदगी है
"मौलिक व अप्रकाशित"
मदन मोहन सक्सेना
Added by Madan Mohan saxena on December 18, 2014 at 11:10am — 6 Comments
Added by pooja yadav on December 18, 2014 at 10:58am — 12 Comments
“अब्बास ये आतंकवादी दीन और ईमान की बात करते हैं, आतंकवादियों का कोई दीन कोई मजहब होता है क्या? बंदूक के ज़ोर पर आतंक फैलाकर कौन सा दीन कायम करना चाहते हैं ?“
अब्बास टी वी की तरफ इशारा करते हुये- “ये बंदूकवाले आतंकवादी खुद मारते और मरते हैं पर कुछ आतंकवादी सिर्फ ज़ुबान चला कर आतंक फैलाते हैं, खुद नहीं मरते मारते ये काम दूसरों से करवाते हैं, दीनो ईमान इनका भी नहीं होता।”
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by शिज्जु "शकूर" on December 18, 2014 at 9:00am — 20 Comments
महा-खुदा की अदालत में
खुदा आज रो रहा है
लाख मनाने पर भी वो
चुप नहीं हो रहा है !!
कभी जाता है, सदमें में
कभी जोर से चिल्लाता है
अपनी, अपनों की हत्या में
मैं शामिल हूँ, दुहराता है !!
अव्यक्त था चिर निद्रा में
व्यक्त हुआ ब्रम्हांड रचा है
शुन्य से हुआ अनंत में
सृष्टी का निर्माण किया है !!
अभिव्यक्त हुआ कण-कण में
मनुष्य का निर्माण किया है
इतने सुन्दर गुण डाले…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on December 18, 2014 at 2:00am — 11 Comments
Added by विनोद खनगवाल on December 17, 2014 at 11:50pm — 6 Comments
पूरब से जैसे चले, शीतल मंद बयार ।
मैं रोया तुम रो पड़ी, समझो जीवन पार ।१।
जीवनसाथी तू सखी, इक मंदिर का छंद ।
तेरे सहचर में मिला, पूजा का आनंद ।२।
तेरी फूलों-सी हंसी, कलियों सी मुस्कान ।
जीवन को जैसे मिला, खुशियों का सामान।३।
ईश्वर ने कैसा रचा, तेरा मेरा साथ ।
मेरी ताकत बन गए, मेंह्दी वाले हाथ ।४।
रिश्ता अपना खूब है, तू शाखा मैं पात ।
बिन बोले क्या खूब तू, समझे मेरी…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 17, 2014 at 10:30pm — 17 Comments
जो टूटा सो टूट गया
रूठा सो रूठ गया ।
साथ चले जिस पथ पर थे
आखिर तो वो भी छूट गया ।
गाँव की पगडण्डी वो छूटी , पानी पनघट छूट गया
खेतवारी बँसवारी छूटी, बचपन कोई लूट गया
भर अँकवारी रोई दुआरी ,नइहर मोरा छूट गया ।
जो....
अँचरा अम्मा का जो छूटा ,घर आँगन सब छूट गया
छिप - छिप बाबा का रोना भइया वो बिसुरता छूट गया
तीस उठी है करेजे में ज्यूँ पत्थर कोई कूँट गया ।
जो…।
पाही पलानी मौन हुए मड़ई से छप्पर रूठ गया
सोन चिरईया…
Added by mrs manjari pandey on December 17, 2014 at 9:30pm — 9 Comments
(दोस्तों मतला लिखा था तरही मुशायरे के लिए ...लेकिन कल पेशावर की घटना ने इतना भाव विह्वल कर दिया कि जो कुछ बन पड़ा है, बच्चो को श्रद्धांजली के रूप में आज ही पेश कर रहा हूँ .)
.
शामिल न हुए अब तक हम उनकी दुआओं में,
पर आज भी रखते हैं हम उनको ख़ुदाओं में.
हैवान हुए जाते हो अपनी…
Added by Nilesh Shevgaonkar on December 17, 2014 at 9:00pm — 6 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on December 17, 2014 at 11:33am — 12 Comments
बर्तन भांडे चुप चुप सारे
*************************
बर्तन भांडे चुप चुप सारे
चूल्हा देख उदासा है
टीन कनस्तर खाली खाली
माचिस देख निराशा है
लकड़ी की आँखें गीली बस
स्वप्न धूप के देख रही
सीली सीली दीवारों को
मन मन में बस कोस रही
पढा लिखा संकोची बेलन
की पर सुधरी भाषा है
बर्तन भांडे चुप चुप सारे
चूल्हा देख उदासा है
स्वाभिमान बीमार पडा है
चौखट चौखट घूम रहा
गिर…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 17, 2014 at 11:00am — 26 Comments
जब भी कलम उठाता हूँ
तुम्हे यादों में पाता हूँ
शब्द नहीं मिलते लिखने को
तेरा चित्र बनाता जाता हूँ !!
कितना कुछ है कहने को
जड़ जुबान हो जाता हूँ
अंतर्मन व्याकुल हो जाता है
उलझन में फंस जाता हूँ !!
मैं दबा कुंठित स्वर को
कागज़ की लाशों पर, बस
अक्षर के फूल सजाता हूँ
फिर फाड़ उन्हें जलाता हूँ !!
कैसे करूँ दिल की बाते
जब हुई चार दिन मुलाकातें
मैं कैसे करूँ तुम्हे…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on December 17, 2014 at 2:00am — 9 Comments
उसके हज़ारों रूप लगे
किसी को सायाँ किसी को धूप लगे
वो एक ही है मगर उसके हज़ारों रूप लगे
मेघ बनते है ,उमड़ते है ,बरसते हैं
किसी को प्यास ,किसी को कैनवास
किसी का विश्वास ,किसी को मीत…
ContinueAdded by somesh kumar on December 16, 2014 at 11:00pm — 7 Comments
हाँ
किसी अज्ञात यात्रा से
लोग यहाँ आते है
कोई आता है चुपके से दुबक कर
कोई आता है सीने से चिपककर
कोई आता इन्तेजार ख़त्म करने
किसी के आने पर बजते है नगाड़े
ढोल-ताशे
यहाँ आकर
फिर शुरू होती है एक नयी यात्रा
गंतव्य तक जाने की मंजिल पाने की
परिश्रम गंवाने की कुछ सुस्ताने की
जी भर रोने की मन-मैल धोने की
शांति से सोने की खुद अपने होने की
जो अभी…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 16, 2014 at 12:15pm — 22 Comments
क्यों होता है अकेलापन
क्यों खो जाता है बचपन.
क्यों हो जाते है हम बड़े
कहाँ चल जाता है छुटपन.
क्यों नहीं आती नींद,
क्यों अपने जाते बिंध
क्यों पराया बनता मित्र
क्यों होते स्वयं में लिप्त.
क्यों तिरोहित हो जाता
जीवन का सुखद संगीत.
क्यों छूट जाता अतीत.
क्यों उदासीन होता मन
जबकि साथ है तन- धन .
क्यों बढ़ जाता मोह
जीवन का यह उहापोह.
.
विजय प्रकाश शर्मा
मौलिक व अप्रकाशित.
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on December 16, 2014 at 11:00am — 8 Comments
२२ २२ २२ २२/१२१
रंगों की नादानी देखो
तेरी करें गुलामी देखो
चाँद धनुक गुलशन और हूर
तेरी रचें जवानी देखो
पहले आम की नई बौरें
यौवन से अनजानी देखो
जोग लगा दे जोग छुड़ा दे
सूरत एक सुहानी देखो
शेख बिरहमन करने लगे
रब से बेईमानी देखो
तुझको पूजूं या प्यार करू
ये अजब परेशानी देखो
तोड़ो चुप्पी गुमनाम ज़रा
कहके प्रेम कहानी…
ContinueAdded by gumnaam pithoragarhi on December 16, 2014 at 10:36am — 15 Comments
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