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गजल(क्या क्या बदलोगे...)

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क्या क्या बदलोगे बाबूजी, जान रहे सब ,बोलो तो

छोड़ो औरों की बातें अब खुद अपने को तोलो तो।1

बोल रहे सब बोल बढ़ाकर,लगता हो तुमको जो ऐसा

अपनी करनी का खाता अब,मत शरमाओ,खोलो तो।2



पहुँचा देते लोग कहाँ तक ,बजा-बजाकर ताली भी

जन-सेवा करते-करते अब ठौर मिला है, सो लो तो।3



रंज हुईं मजबूर हवाएँ रह-रह आज बताती हैं

धुलता दामन,दाग चढ़े हैं,और जहर मत घोलो तो।4



चिट्ठी आई है चंदू की,चाचा और भतीजों…

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Added by Manan Kumar singh on January 8, 2018 at 10:00am — 10 Comments

शीत के दोहे - लक्ष्मण धामी ' मुसाफिर'

शीत के दोहे



बालापन सा हो गया, चहुँदिश तपन अतीत

यौवन सा ठिठुरन लिए, लो आ पहुँची शीत।१।



मौसम बैरी  हो  गया, धुंध ढके हर रूप

कैसै देखे अब भला, नित्य धरा को धूप।२।



शीत लहर के तीर नित, जाड़ा छोड़े खूब

नभ  के  उर  में  पीर  है, आँसू  रोती दूब।३।



हाड़  कँपाती  ठंड  से , सबका  ऐसा हाल

तनमन मागे हर समय, कम्बल स्वेटर शॉल।४।



शीत लहर फैला रही, जाने क्या क्या बात

दिन घूँघट  में  फिर रहा, थरथर काँपे रात।५।



लगी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 8, 2018 at 7:27am — 8 Comments

बाकी मैं न रहूँ न मेरी खूबियां रहें

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आबाद इस चमन में तेरी शेखियाँ रहें ।

बाकी न मैं रहूँ न मेरी खूबियां रहें ।।

नफ़रत की आग ले के जलाने चले हैं वे ।

उनसे खुदा करे कि बनीं दूरियां रहें ।।

दीमक की तर्ह चाट रहे आप देश को ।

कायम तमाम आपकी वैसाखियाँ रहें ।।

बैठे जहां हैं आप वही डाल काटते ।

मौला नजर रखे कि बची पसलियां रहें ।।



अंधा है लोक तन्त्र यहां कुछ भी मांगिये ।

बस शर्त…

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Added by Naveen Mani Tripathi on January 8, 2018 at 2:30am — 7 Comments

जो अपने माँ-बाप के - सलीम रज़ा

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जो अपने माँ-बाप के दिल को दुखाएगा

चैन-ओ- सुकूँ वो जीवन भर ना पाएगा

-

हक़ बातें तू हरगिज़ ना कह पाएगा

अहसानों के तले  अगर दब जाएगा

-

उस दिन दुनिया ख़ुशिओं से भर जाएगी

जिस दिन प्रीतम लौट के घर को आएगा

-

भूँखा -प्यासा जब देखेगी बेटों को

माँ का दिल टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा

-

उसकी मुरादें सब पूरी हो जाएंगी

दर पे उसके जो दामन फैलाएगा

-

मेरी…

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Added by SALIM RAZA REWA on January 7, 2018 at 6:00pm — 12 Comments

शान-ए-अवध

जल रहे चिराग हैं, जिंदा यहां तख़्त-ओ-ताज है

बह रही गोमती, रोशन यहां के घाट हैं

यह लखनऊ की धरती

यह लखनऊ की शाम है

तहजीब यहां अब्दो आब है,खिलते हर दिल में ख्वाब हैं

दुश्मन को भी कहते आप हैं,दोस्त भी अमें यार हैं

गंज की शाम है, बागों में भी बाग हैं

यह लखनऊ की धरती

लखनऊ की शाम है।

रूमी दरवाजा वो शान है, आज भी तहजीब उसकी आन है ।

इमामबाड़ा हिंदू मुस्लिम एकता की पहचान है

बेगम की कोठी में जलते चिरो चिराग,नक्खास पर सजती बाजार…

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Added by peeyush kumar on January 6, 2018 at 9:51pm — 7 Comments

सुबह की धूप

 खुद को भूली वो जब दिन भर के काम निपटा कर अपने आप को बिस्तर पर धकेलती तो आँखें बंद करते ही उसके अंदर का स्व जाग जाता और पूछता " फिर तुम्हारा क्या". उसका एक ही जवाब "मुझे कुछ नहीं चाहिए. कभी ना कभी तो मेरा भी वक्त आएगा. उसे याद है अपने छोटे से घर की…

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Added by नयना(आरती)कानिटकर on January 6, 2018 at 6:45pm — 3 Comments

ग़ज़ल..रात भर-बृजेश कुमार 'ब्रज'

मुतदारिक सालिम मुसम्मन बहर

212 212 212 212

आँख आँसू बहाती रही रात भर

दर्द का गीत गाती रही रात भर

आसमां के तले भाव जलते रहे

बेबसी खिलखिलाती रही रात भर

बाम पे चाँदनी थरथराने लगी

हर ख़ुशी चोट खाती रही रात भर

रूह के ज़ख्म भी आह भरने लगे

आरजू छटपटाती रही रात भर

प्यार की राह में लड़खड़ाये कदम

आशकी कसमसाती रही रात भर

आह भरते हुये राह तकते रहे

राह भी मुँह चिढ़ाती रही रात भर …

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 6, 2018 at 5:30pm — 31 Comments

घर के काज (लघुकथा)

जनवरी की कड़ाके की ठंड। घना कोहरा। सुबह क़रीब पांच बजे का वक़्त। सरपट भागती ट्रेन की बोगी में सादी साड़ियां, पुराने से सादे स्वेटर और रबर की पुरानी से चप्पलें पहनी चार-पांच ग्रामीण महिलाओं की फुर्तीली गतिविधियां देख कर नज़दीक़ बैठा सहयात्री उनसे बातचीत करने लगा।

"ये चने की भाजी कहां ले जा रही हैं आप सब?"

"दिल्ली में बेचवे काजे, भैया!" एक महिला ने भाजी की खुली पोटली पर पानी के छींटे मारकर दोनों हाथों से भाजी पलटते हुए…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 6, 2018 at 7:30am — 4 Comments

ग़ज़ल - मुकम्मल भला कौन है इस जहां में

बह्र- फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन

ग़ज़ब की है शोखी और अठखेलियाँ हैं।

समन्दर की लहरों में क्या मस्तियाँ हैं।

महल से भी बढ़कर हैं घर अपने अच्छे,

भले घास की फूस की आशियाँ हैं।

मुकम्मल भला कौन है इस जहाँ में,

सभी में यहाँ कुछ न कुछ खामियाँ हैं।

ज़िहादी नहीं हैं ये आतंकवादी,

जिन्होंने उजाड़ी कई बस्तियाँ हैं।

ये नफरत अदावत ये खुरपेंच झगड़े,

सियासत में इन सबकी जड़ कुर्सियाँ हैं।

समन्दर के जुल्मों सितम…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on January 5, 2018 at 10:27pm — 16 Comments

खुली खिचड़ी(लघु कथा)



मामले की सुनवाई के उपरांत सजा तय हो चुकी थी।अब ऐलान होना शेष था।न्याय-प्रक्रिया के चौंकानेवाले तेवर के मद्दे नजर लोगों में उत्सुकता बढ़ती जा रही थी कि घोटाले के इस मामले में आखिर क्या सजा होती है।बाकी के हश्र सामने थे,वही ढाक के तीन पात जैसे।और न्याय की देवी आज -कल में फँसी हुई थी,क्योंकि कभी किसी वकील की मर्सिया-सभा हो रही होती, तो कभी कुछ और कारण होता।

-फिर कल?

-‎हाँ, अब कल सजा सुनाई जायेगी।

-‎वो क्यों?

-‎पता नहीं।हाँ मुजरिम ने कुछ कम सजा की गुहार लगायी है।…

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Added by Manan Kumar singh on January 5, 2018 at 8:00pm — 13 Comments

कुछ कहते-कहते ...

कुछ कहते-कहते ...

विरह निशा के श्यामल कपोलों को चूम

निशब्द प्रीत

अपनी निष्पंद साँसों के साथ

कुछ कहते-कहते

सो गयी

व्यथित हृदय

कब तक बहलता

पल पल

टूटती यादों के खिलौनों से

स्मृति गंध

आहटों के राग की प्रतीक्षा में

नैनों में

वेदना की विपुल जलराशि भरे

पवन से

कुछ कहते-कहते

सो गयी

खामोशियाँ

बोलती रहीं

शृंगार सिसकता रहा

थके लोचन

विफलता के प्रहार

सह न सके…

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Added by Sushil Sarna on January 5, 2018 at 5:38pm — 9 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
पहाड़ी नारी  (लम्बी कविता 'राज')

पहाड़ी नारी  

कुदरत के रंगमंच का    

बेहद खूबसूरत कर्मठ किरदार   

माथे पर टीका नाक में बड़ी सी नथनी

गले में गुलबन्द ,हाथों में पंहुची,

पाँव में भारी भरकम पायल पहने

कब मेरे अंतर के कैनवास पर

 चला आया पता ही नहीं चला

 पर आगे बढने से पहले ठिठक गई मेरी तूलिका 

 हतप्रभ रह गई देखकर

एक  ग्रीवा पर इतने चेहरे!!!

कैसे संभाल रक्खे हैं  

हर चेहरा एक जिम्मेदारी के रंग से सराबोर

कोई पहाड़ बचाने का

कोई जंगल बचाने…

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Added by rajesh kumari on January 4, 2018 at 7:30pm — 21 Comments

वज़्म ये सजी कैसी कैसा ये उजाला है - सलीम रज़ा

212 1222 212 1222

बज़्म ये सजी कैसी कैसा ये उजाला है

महकी सी फ़ज़ाएँ हैं कौन आने वाला है

-

चाँद जैसे चेहरे पे तिल जो काला काला है

मेरे घर के आँगन में सुरमई उजाला है

-

इतनी सी गुज़ारिश है नींद अब तू जल्दी आ 

आज मेरे सपने में यार आने वाला है

-

जागना वो रातों को भूक प्यास दुख सहना

माँ ने अपने बच्चों को मुश्किलों से पाला है

-

उसके दस्त-ए-क़ुदरत में ही निज़ाम-ए-दुनिया है

इस जहान-ए-फ़ानी को जो बनाने वाला है

-…

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Added by SALIM RAZA REWA on January 4, 2018 at 5:30pm — 28 Comments

गुड़ खाये गुलगुले से परहेज

पहली जनवरी की सुबह कुहरे की चादर लपेटे, रोज से कुछ अलग थी। सामने कुछ भी दिखाई नही दे रहा था। चाहे मौसम अनुकूल हो या प्रतिकूल, गौरव की दिनचर्या की शुरूआत मॉर्निंग वॉक से ही होती है, सो आज भी निकल गया हाथ मे एक टार्च लिए।

गली के चौराहे पर रोज की तरह शर्मा जी मिल गए। गौरव ने उनको हैप्पी न्यू ईयर बोला। पर शर्मा जी शुभकामना देने के बजाय भड़कते हुए बोले-

"अरे गौरव भाई! कौन से नव वर्ष की बधाई दे रहे हैं आप? आज आपको कुछ भी नया लग रहा है। क्या?"

क्यों? आपके…

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Added by नाथ सोनांचली on January 4, 2018 at 1:30pm — 12 Comments

बंधन की डोरियां - डॉo विजय शंकर

कुछ डोरियां

कच्चे धागों की होती हैं ,

कुछ दृश्य होती हैं ,

कुछ अदृश्य होती हैं ,

कुछ , कुछ - कुछ

कसती , चुभती भी हैं ,

पर बांधे रहती हैं।

कुछ रेशम की डोरियां ,

कुछ साटन के फीते ,

रंगीले-चमकीले ,फिसलते ,

आकर्षित तो बहुत करते हैं ,

उदघाट्न के मौके जो देते हैं ,

पर काटे जाते हैं।

इस रेशम की डोरी

की लुभावनी दौड़ में ,

ज़रा सी चूक ,

बंधन की डोरियां

छूट गईं या टूट गईं ,

रेशम की डोरियां …

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Added by Dr. Vijai Shanker on January 4, 2018 at 9:30am — 10 Comments

चूना लगा (लघुकथा)

"आप मुझसे कब तक प्रेम करेंगे?" समुद्र तट पर पति के साथ प्यार भरे लम्हों में बहुत भावुक होते हुए पत्नी ने कहा।
पति ने उसकी आँखों से आँसू की एक बूंद निकाल कर समुद्र के पानी में डाला और बोला - "इस आँसू की बूंद को जब तक तुम खोजकर नहीं निकालतीं, मैं तब तक तुमसे प्रेम करूँगा ..!"
यह देख समुद्र की भी आँखों में पानी आ गया और उसने कहा - 
"कहाँ से सीखते हो रे तुम लोग ... पत्नी को इतना चूना लगाना…
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Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 4, 2018 at 9:24am — 7 Comments

लजाते हो क्यूँ तुम-गीत

जो हमसे मोहब्बत नहीं है तो हमको

बताओ कि हमसे लजाते हो क्यूँ तुम?

निगाहें मिला कर निगाहों को अपनी

झुकाते हो हमसे छिपाते हो क्यूँ तुम?

कभी फेरना पत्तियों पर उँगलियाँ,

कभी फूल की पंखुड़ी पर मचलना

अचानक सजावट की झाड़ी को अपनी

हथेली से छूते हुए आगे बढ़ना

ये शोखी ये मस्ती दिखाते हो क्यूँ…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 4, 2018 at 8:00am — 7 Comments

नए साल के दोहे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

विपदा  से  हारो  नहीं,  झेलो  उसे  सहर्ष

नित्य खुशी औ' प्यार से, बीते यह नववर्ष।१।



नभ मौसम सागर सभी, कृपा  करें  अपार

जनजीवन पर ना पड़े, विपदाओं की मार।२।



इंद्रधनुष के  रंग सब, बिखरे हों हर बाग

नये वर्ष में मिट सके, भेद भाव का दाग।३।



खुशियों का मकरंद हो, हर आँगन हर द्वार

हो  सब  में  सदभावना, जीने  का  आधार।४।



विदा  है  बीते  साल को, अभिनंदन नव वर्ष

ऋद्धि सिद्धि सुख…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 4, 2018 at 8:00am — 12 Comments

ग़ज़ल

2122 1122 1122 22

जहर कुछ जात का लाओ तो कोई बात बने ।

आग मजहब से लगाओ तो कोई बात बने ।।

देश की शाख़ मिटाओ तो कोई बात बने ।

फ़स्ल नफ़रत की उगाओ तो कोई बात बने ।।

सख़्त लहजे में अभी बात न कीजै उनसे।

मोम पत्थर को बनाओ तो कोई बात बने ।।

अब तो गद्दार सिपाही की विजय पर यारों ।

याद में जश्न मनाओ तो कोई बात बने ।।

जात के नाम अभी…

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Added by Naveen Mani Tripathi on January 4, 2018 at 12:39am — 8 Comments

बदल रहा है बचपन(लघुकथा)

सड़क पर एक बच्चा हाथों में पत्थर लिए चल रहा था| मासूम हाथों में पत्थर देख एक राहगीर ने पूछा,' कहाँ जा रहे हो बेटा?" 
उस मासूम ने जवाब दिया,' उनको मारने?'
" किसको!" उस राहगीर ने आश्चर्यचकित हो पूछा|
' जिन्होंने हम पर हमला किया है|'
'किसने हमला किया है बच्चे?'
'उन लोगों ने|' 
'तुम आखिर क्या करोगे उनका?'
'मार दूंगा|'
'पर क्यों?'
'क्योंकि वे हमें मार रहे हैं|"
'तुम यहाँ क्यों आये…
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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on January 3, 2018 at 10:31pm — 3 Comments

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