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May 2017 Blog Posts (117)

नूर की हिंदी ग़ज़ल ..दर्पणों से कब हमारा मन लगा

२१२२/२१२२/२१२ 

.

दर्पणों से कब हमारा मन लगा

पत्थरों के मध्य अपनापन लगा. 

.

लिप्त है माया में अपना ही शरीर

ये समझ पाने में इक जीवन लगा.

.

तप्त मरुथल सी ह्रदय की धौंकनी

हाथ जब उस ने रखा चन्दन लगा.

.

मूर्खता पर करते हैं परिहास अब

जो था पीतल वो हमें कुन्दन लगा.

.

प्रेम में भी कसमसाहट सी रही

प्रेम मेरा आपको बन्धन लगा.

.

जल रहे हैं हम यहाँ प्रेमाग्नि में

और उस पर ये मुआ सावन लगा.…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 9, 2017 at 10:00am — 37 Comments

सही - गलत -- डॉo विजय शंकर

हम इसके गलत की बात करते हैं
उसके गलत की बात नहीं करते हैं ,
हम इसके उसके की बात करते हैं
सही गलत की बात नहीं करते हैं।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on May 8, 2017 at 8:00pm — 10 Comments

उल्फत न सही बैर निभाने के लिए आ.(समीक्षार्थ ग़ज़ल) :अलका ललित

221 1221 1221 122

***

उल्फत न सही बैर निभाने के लिए आ

चाहत के अधूरे से फ़साने के लिए आ

.

चाहत भरी दस्तक भी सुनी थी कभी दिल ने

वीरानियों को फिर से बसाने के लिए आ

.

शब्दों की कमी तो मुझे हरदम ही रही है

खामोश ग़ज़ल कोई सुनाने के लिए आ

.

सागर ये गमों का कहीं तट तोड़ न जाए

ऐ राहते जां बांध बनाने के लिए आ

.

रौशन दरो दीवार है झिलमिल है सितारे 

ऐ चाँद मेरे मुझको…

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Added by अलका 'कृष्णांशी' on May 8, 2017 at 4:00pm — 10 Comments

साहस

कविता ने 

चूमा

उसके 

दिल को 

मायनों में

एक आदमी में 

कभी नहीँ

था

इतना 

साहस

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

Added by narendrasinh chauhan on May 8, 2017 at 12:34pm — 5 Comments

राष्ट्र व इसके सपूतों को समर्पित

राष्ट्र मेरा है अलबेला है इसकी छवि निराली,

लाल हुए है पैदा ऐसे जिनके बोल गए न खाली।



क्या लाला क्या वल्लभ जी ?

गोद में अपनी इसने तो रानी लक्ष्मी भी है पाली ।



अरे उनकी तो बात ही क्या जो फाँसी चढ़ गए हँसते-हँसते,

न जाने कितने वीरों को दिखा दिए थे आजादी के रस्ते।



आजाद था आजाद रहेगा करलो चाहे जितनी मनमानी,

अभी तो बस शुरू हुई है उन आर्यों की ये अमर कहानी।



श्री राम की मर्यादा है जो हमने तुझको माफ़ किया,

मत भूल कि उस बिस्मिल ने फिर न… Continue

Added by साक्षी शर्मा on May 8, 2017 at 10:06am — 11 Comments

ख्वाब भी तेरा सताता है मुझे

एक ग़ज़ल का प्रयास

२१२२ २१२२ २१२

 

नींद में आकर सताता  है मुझे

ख्वाब भी तेरा जगाता है मुझे

 

झूमती आती घटायें बदलियाँ,

प्यार का मौसम बुलाता है मुझे

 

सर्दियों में सूर्य भाया था बहुत,  …

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Added by बसंत कुमार शर्मा on May 8, 2017 at 10:00am — 14 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - क्या कज़ा को हयात कहता है ? ( गिरिराज भंडारी )

2122  1212  22 /112

क़ैद को क्यों नजात कहता है

क्या कज़ा को हयात कहता है ?

 

तीन को अब जो सात कहता है

बस वही ठीक बात कहता है

 

क्यूँ न तस्लीम  उसको कर लूँ मैं

वो मिरे दिल की बात कहता है

 

कैसे कह दूँ कि वास्ता ही नहीं

रोज़ वो शुभ प्रभात कहता है

 

ऐतराज उसको है शहर पे बहुत

हाथ अक्सर जो हात कहता है

 

उसकी बीनाई भी है शक से परे   

जो सदा दिन को रात कहता है

 

जीत जब…

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Added by गिरिराज भंडारी on May 8, 2017 at 10:00am — 21 Comments

गजल(कुर्सी के हाथ हुए पीले)

22 22 22 22

***********

कुर्सी के हाथ हुए पीले

साहब जी अब पड़ते ढ़ीले।1



पानी उतरा जाता उनका

दीख रहे टीले ही टीले।2



बिकते आये घोड़े माफिक

रंग रहे काफी चटकीले।3



याद सताती कुर्सी की तो

हो जाते हैं खूब हठीले।4



ढूँढ रहे वे रोज सनद ही

उम्मीद बँधे तो हैं फुर्तीले।5



कुर्सी ढ़ाढ़स देती,कहती-

पाँच बरस कैसे भी जी ले।6



रक्त पिये जायेगा कितना

थोड़ा-थोड़ा आँसू पी ले।7



अँधियारे में वस्त्र फटा… Continue

Added by Manan Kumar singh on May 8, 2017 at 7:00am — 12 Comments

ग़ज़ल: सूखे-सूखे जंगल अब

बह्र-22/22/22
सूखे-सूखे जंगल अब,
रूठे-रूठे बादल अब ।

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वादे, नारे सब झूठे,
बदले-बदले हैं दल अब ।

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देखो किसकी साज़िश है,
रिश्ते-नाते घायल अब ।

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बोतल में ऊँचे दामों,
बिकता है गंगा जल अब ।

.

ग़रीब के घर भी यारों,
ख़ुशियों वाला हो पल अब ।

.
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on May 7, 2017 at 9:00pm — 13 Comments


प्रधान संपादक
तरही ग़ज़ल-2 (आ० समर कबीर जी को समर्पित)

1222 1222 122
.
हमारा धर्म दहशत है? नहीं तो!

तो पूरी क़ौम सहमत है? नहीं तो!
.
तेरे हाथों में ख़ंजर है, मेरे भी
ये क्या अच्छी अलामत है? नही तो



फ़क़त मंदिर ओ मस्जिद के मसौदे,

यही क़ौमी क़यादत है? नही तो!  



अज़ीमुश्शां मक़ाबिर के जो खालिक,

कहीं उनकी भी तुर्बत है? नही तो!


जहाँ पत्थर की हर देवी सुरक्षित,

वहाँ बेटी…
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Added by योगराज प्रभाकर on May 7, 2017 at 7:30pm — 18 Comments

ललक दिल को रिझाने की -लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’ (ग़ज़ल)

ग़ज़ल



1222 1222 1222 1222

ललक दिल को रिझाने की जो खूनी हो गई होगी

किसी का सुख किसी की पीर दूनी हो गई होगी।1।

सभी के हाथ में गुल हैं यहाँ जुल्फें सजाने को

न जाने किस चमन की शाख सूनी हो गई होगी।2।

हवा बंदिश की सुनते हैं बहुत शोलों को भड़काए

मुहब्बत यार कमसिन की जुनूनी हो गई होगी।3।

हमें तो सुख रजाई का मिला है शीत में यारो

किसी जंगल में फिर से तेज धूनी हो गई होगी।4।

नहीं उसको…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 7, 2017 at 1:19pm — 12 Comments

गीतिका/सतविन्द्र

(16 मात्राएँ)
कर्म करें तो बढ़ते सारे
बिना किये किस्मत भी हारे

रात चाँदनी और ये तारे
नहीं सुहाते बिना तुम्हारे

मजहब क्या दीवार है कोई
लिख डाले जो इतने नारे

रात अँधेरी से क्या डरना
हैं उम्मीदों के उजियारे

बीच भँवर में जीवन नैया
डोल रही,हैं दूर किनारे

खींचेगी फूलों की खुशबू
चलो देख कर काँटे प्यारे।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on May 7, 2017 at 8:03am — 27 Comments

खो गये है शब्द (कविता)

जाने कहाँ खो गये
खो गये हैं शब्द

जिनको पढ़कर कभी
हुआ करती थी सुबह

प्रथम किरणों के संग
ओस की बूंदों के भीतर

खो गये है वे शब्द
जो सूर्योदय से सूर्यास्त तक

कर देते थे जिवंत
ख़्वाब सजाया करते थे

खो गये हैं शब्द
जाने कहाँ किस ओर गये ।


मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on May 6, 2017 at 11:08pm — 4 Comments

कौन भरेगा पेट - एक नव गीत

कौन भरेगा पेट  

 

छोड़ा गाँव आज बुधिया ने,

बिस्तर लिया लपेट

उपजायेगा कौन अन्न अब,

कौन भरेगा पेट  

 

गायब हैं घर में खिड़की अब,

दरवाजों की चलती है

आज कमी आँगन की हमको,

बहुत यहाँ…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on May 6, 2017 at 7:30pm — 10 Comments

क्षणिकाएँ

१. 

निद्राधीन निस्तब्धता

कुलबुलाता शून्य

सनसनाता पवन

डरता है मन

अर्धरात्रि में क्यूँ

कोई खटखटाता है द्वार

प्रलय, सोने दो आज

        ------

२.

मेरी ही गढ़ी तुम्हारी आकृति

बारिश की बूँदें

तुम्हारे आँसू

तुम्हारी खिलखिलाती हँसी

कल्पना ही तो हैं सब

वरना 

मुद्दतें हो गई हैं तुमसे मिले

          -----

३.

कभी अपना, कभी

अपनी छाया का…

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Added by vijay nikore on May 6, 2017 at 10:24am — 24 Comments

चार महारथी (लघुकथा)/शेख़ शहज़ाद उस्मानी

मोमबत्ती जलाते हुए एक व्यक्ति ने कहा-"लो हम भी निर्भया के नाम आज एक मोमबत्ती जला देते हैं उसकी मम्मी की तरह!"

"तो निर्भया और उसकी मम्मी के नाम हो जाये एक और जाम!" दूसरे व्यक्ति ने अगला पैग बनाते हुए कहा।"

"सालों को रेप और वो सब करना ही था, तो ऐसे करते कि फांसी की सज़ा न हो पाती! गये साल्ले काम से, फांसी की सज़ा कन्फर्म!" अख़बार का मुख्य पृष्ठ लहराते हुए तीसरे व्यक्ति ने नशे में कहा।

पांच साल पहले निर्भया नाम की युवती पर कुछ युवकों ने एक निजी बस में हमला कर निर्ममता से बलात्कार…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on May 6, 2017 at 10:00am — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
दो अतुकांत - वैचारिक रचनाएँ ( गिरिराज भंडारी )

1- आंतरिक सम्बन्ध

**************

मैंने पीटा तो दरवाज़ा था

हिल उठी साँकल ...

खड़ खड़ कर के .... 

और..

आवाज़ अन्दर से आयी

कौन है बे.... ?

बस...

मै समझ गया

तीनों के आंतरिक सम्बन्धों को

******

 2- आग और पानी

*****************

आग बुझे या न बुझे

आग लग जाना दुर्घटना है, या साजिश

किसे मतलब है

इन बेमतलब के सवालों से

 

ज़रूरी है,  अधिकार ....

पानी पर

सारा झगड़ा इसी…

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Added by गिरिराज भंडारी on May 6, 2017 at 9:00am — 12 Comments

ग़ज़ल : इस्लाह हेतू

1222  1222  1222     1222

नजर से दूर रहकर भी जो दिल के पास रहती है

कभी नींदें चुराती है कभी ख्वाबों में मिलती है. 

चमकना चाँद सा उसका मेरी हर बात पर हँसना

कहीं फूलों की नगरी में कोई वीणा सी बजती है. 

ये भोलापन हमारा है कि है जादूगरी उसकी

वफ़ा फितरत नहीं जिसकी वही दिलदार लगती है. 

कभी मैं भूल जाऊँगा उसे कह तो दिया लेकिन

जो दिल पर हाथ रक्खा तो वही धड़कन सी लगती है. 

तुम्हारा जो बचा था पास मेरे ले लिया तुमने…

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Added by Neeraj Neer on May 6, 2017 at 7:55am — 19 Comments

बैक टू बटालियन

सुनसान रात में लगभग तीन घंटे दौड़ने के बाद वह सैनिक थक कर चूर हो गया था और वहीँ ज़मीन पर बैठ गया। कुछ देर बाद साँस संयत होने पर उसने अपने कपड़ों में छिपाया हुआ मोबाईल फोन निकाला। उस पर नेटवर्क की दो रेखाएं देखते ही उसकी आँखों में चमक आ गयी और बिना समय गंवाये उसने अपनी माँ को फोन लगाया। मुश्किल से एक ही घंटी बजी होगी कि माँ ने फोन उठा लिया।

 

सैनिक ने हाँफते स्वर में कहा, “माँ मैं घर आ रहा हूँ।”

 

“अच्छा! तुझे छुट्टी मिल गयी? कब तक पहुंचेगा?” माँ ने ख़ुश होकर प्रश्न…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on May 5, 2017 at 11:00pm — 8 Comments

ग़ज़ल (22-22-22-22-22-22-22-2)

 

22   22   22   22   22   22   22   2



दिल के तख़्त पे हाए हमने किस ज़ालिम को बिठा लिया 

दिल की बस्ती को ही उजाड़ा उसने ऐसा काम किया।

 

'लुटे हुए अरमानों को वापिस लाऊंगा' बोला था  

लेकिन जो था पास हमारे वो भी हमसे छीन लिया।

 

अब कहता है, इश्क़ में सब आशिक़ ऐसा ही करते हैं 

मैंने भी गर झूठे वादे किए तो कोई पाप किया।

 

कितनी बार रकीबों ने अरमानों के सर काटे हैं 

और वो बस इतना कहते हैं बुरा किया भई बुरा…

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Added by Gurpreet Singh jammu on May 5, 2017 at 11:00am — 17 Comments

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