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गजल(दूर कहीं से कौड़ी आई)

22 22 22 22
दूर कहीं से कौड़ी आई-
आओ साथ बनाओ भाई।1

बाल बचे जो मुड़ जायें मत
डरता रहता टकलू नाई।2

जीत दिलाने में पिछड़ी हैं
बरबोलों की माई-जाई।3

सहमी जातीं समता-ममता
माया ने सब नाच नचाई।4

खेत चरे क्यूँ बतलायेंगे
चिल्लाते सब 'राम दुहाई'।5

माथा पीट रहे मुँहझौंसे
निज करनी ने लंका ढ़ाई।6

योग लगन ग्रह वार जुटे सब
किसको किसकी बाजी भाई?7
@मौलिक व अप्रकाशित

Added by Manan Kumar singh on March 28, 2017 at 1:30pm — 5 Comments

ग़ज़ल....रही माँ पूछती आँसू बहा कर

1222 1222 122


मिलेगा क्या तुम्हें परदेश जा कर
रही माँ पूछती आँसू बहा कर

तड़पता छोड़कर तन्हा शजर को
परिंदा उड़ गया पर फड़फड़ा कर

बहल जाये विकल मासूम बचपन
नजर भर देख ले माँ मुस्कुरा कर

है पल पल टूटती साँसों की माला
बिता लो चार पल ये हँस हँसा कर

न जाओ छोड़कर 'ब्रज' कुंज गलियाँ
दरख्तों ने कहा ये कसमसा कर

.
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 27, 2017 at 11:00pm — 10 Comments

रियल एंग्री बर्ड (लघुकथा)राहिला

"कुछ भी कर लो इनके लिए ,लेकिन इन्हें शिकायतें ही शिकायतें हैं हर वक़्त ।किसी काम से संतुष्ट ही नहीं होती।परेशान आ गयी हूँ जानकी!"

"इसमें परेशानी जैसी तो कोई बात नज़र नहीं आती ।तू काम किया कर ढंग से।ये हलवे में मिठास जरा कम है।"

वह इत्मीनान के साथ हलवे की कटोरी साफ़ करते हुए बोली।

" मज़ाक मत कर,1मैं सीरियस हूँ ।

"मज़ाक..!वह तो मैं भी नहीं कर रही हूँ।अलबत्ता तू जरूर बेतुकी समस्या का रोना लेकर इस हसीन दोपहर का सत्यानाश कर रहीं है?"उसने मुंह में चिप्स डालते हुए कहा।

"अच्छा...!… Continue

Added by Rahila on March 27, 2017 at 10:00pm — 9 Comments

ख़्वाब ...

ख़्वाब ...

नींद से आगे की मंज़िल

भला

कौन देख पाया है

बस

टूटे हुए ख़्वाबों की

बिखरी हुई

किर्चियाँ हैं

अफ़सुर्दा सी राहें हैं

सहर का ख़ौफ़ है

सिर्फ

मोड़ ही मोड़ हैं



न शब् के साथ

न सहर के बाद

कौन जान पाया है

कब आता है

कब चला जाता है

ज़िस्म की

रगों में

हकीकत सा बहता है

अर्श और फ़र्श का

फ़र्क मिटा जाता है

सहर से पहले

जीता है

सहर से पहले ही

मर जाता है…

Continue

Added by Sushil Sarna on March 27, 2017 at 7:06pm — 5 Comments

पनघट भी ज़हरीला होगा

22 22 22 22



चाँद बहुत शर्मीला होगा ।

थोड़ा रंग रगीला होगा ।।



यादों में क्यों नींद उडी है।

कोई छैल छबीला होगा ।।



रेतों पर जो शब्द लिखे थे ।

डूब गया वह टीला होगा ।।



ख़ास अदा पर मिटने वालों ।

पथ आगे पथरीला होगा ।।



जिसने हुस्न बचाकर रक्खा ।

हाथ उसी का पीला होगा ।।



ज़ख़्मी जाने कितने दिल हैं ।

ख़ंजर बहुत नुकीला होगा ।।



मत उसको मासूम् समझना ।

दिलवर बहुत हठीला होगा ।।



बिछड़ेंगे जीवन के… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on March 27, 2017 at 6:51pm — 1 Comment

ख़त उसका भी आता होगा

22 22 22 22

मुद्दत से वह ठहरा होगा ।

रिश्ता शायद दिल का होगा ।।



सच कहना था गैर ज़रूरी ।

छुप छुप कर वह रोता होगा ।।



ढूढ़ रहा है तुझको आशिक।

नाम गली में पूछा होगा ।।



इल्म कहाँ था इतना उसको ।

अपना गाँव पराया होगा ।।



चेहरा देगा साफ़ गवाही।

जैसा वक्त बिताया होगा ।।



दाग मिलेगा गौर से देखो ।

चिलमन अगर उठाया होगा ।।



मैंने उसको याद किया है ।

खत उसका भी आता होगा ।।



यूँ ही कब निकले हैं आँसू… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on March 27, 2017 at 2:37pm — 9 Comments

लघु कथा - पगडंडी

काले कोलतार की चमक लिए पक्की सड़क । वहीं बगल में थोड़ी निचाई पर पक्की सड़क के साथ-साथ ही चलती एक पगडंडी ।

सड़क पर लोगों की खूब आमोदरफ्त रहती, गाड़ियों का आवागमन रहता । अपना मान बढ़ता देख सड़क इतराती रहती । एक दिन उसने पगडंडी से कहा – "मेरे साथ चल कर क्या तू मेरी बराबरी कर लेगी ।  कहाँ मैं चमकती हुयी चिकनी सड़क और कहाँ तू कंकड़-पत्थर से अटी हुयी बदसूरत सी पगडंडी । महंगी से महंगी और बड़ी से बड़ी गाडियाँ मेरे ऊपर से आराम से गुजर जाती हैं । और तू...हुंह... ।" क्यों अपना समय बेकार करती है । यहीं रुक…

Continue

Added by Neelam Upadhyaya on March 27, 2017 at 2:00pm — 3 Comments

गजल(कुर्सियाँ किसकी हुईं हैं बोलिये भी)

#गजल#-103

.

कुर्सियाँ किसकी हुई हैं बोलिये भी
गाँठ में क्या-क्या छिपा है खोलिये भी।1

आपको भी क्या न करना पड़ गया है
हो न सकते साथ जिनके,हो लिये भी।2

जानते सब कुर्सियों की कीमतें हैं
हम भुला खुद को जरा-सा तोलिये भी।3

घोलते आये फ़िजां में क्या नहीं कुछ
अब जहर फिरसे यहाँ मत घोलिये भी।4

कुर्सियों के ताव में कुछ कर गये थे
चोट खायी खूब हमने गो लिये। भी।5
@मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Manan Kumar singh on March 27, 2017 at 9:30am — 9 Comments

ग़ज़ल नूर की-- तेरी दुनिया में हम बेकार आये.

.

समझ पाये जो ख़ुद के पार आये,

तेरी दुनिया में हम बेकार आये.

.

बहन माँ बाप बीवी दोस्त बच्चे,

कहानी थी.... कई क़िरदार आये. 

.

क़दम रखते ही दीवारें उठी थीं,  

सफ़र में मरहले दुश्वार आये.

.

शिकस्ता दिल बिख़र जायेगा मेरा,

वहाँ से अब अगर इनकार आये.

.

उडाये थे कई क़ासिद कबूतर,   

मगर वापस फ़क़त दो चार आये.

.

समुन्दर की अनाएँ गर्क़ कर दूँ,

मेरे हाथों में गर पतवार आये.

.

अगरचे…

Continue

Added by Nilesh Shevgaonkar on March 26, 2017 at 6:00pm — 28 Comments

लघुकथा

लखूचंद 

=====

एक दिन कालेज के कुछ युवक लखूचंद के सामने ही उसकी जमकर तारीफ कर रहे थे ,

‘‘‘ अरे ये तो लखूचंद के एक हाथ का कमाल है , दोनों हाथ होते तो पूरे जिले में मिठाई के नाम पर केवल इन्हें ही जाना जाता। लेकिन यार , ये तो बताओ कि दूसरा हाथ क्या जन्म से ही ऐसा है या बाद में कुछ हो गया ?‘‘

बहुत दिन बाद लखूचंद को अपनी जवानी के दिन याद आ गए, बोले ,



‘‘ युवावस्था में मैं यों ही बहुत धनवान होने का सपना देखा करता । पिताजी कहते थे कि मैं उनकी हलवाई की दूकान सम्हालूं…

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Added by Dr T R Sukul on March 26, 2017 at 11:54am — 1 Comment

कोई फकीर तो कोई बादशा नजर आये

बहर:-1212-1122-1212-22



कोई फ़क़ीर तो कोई बादशा नजर आये।।

नजर का फर्क है ये किसको क्या नजर आये।।



है चाह दिल में की मुझको वफ़ा नजर आये।।

लिबास गुल में भी अदबी हया नजर आये।।



उन्हें जो देख लु तो जख्म दिल हरा हो ले ।

वो इश्क राह में इक हादसा नजर आये।।



भटक गया हूँ मै इस जिन्दगी की उलझन में।

है फ़िक्रे दिल की कोई रास्ता नजर आये।।



वो मश्खरे में भी भददी जुबाँ नही होता ।

जिन्हें वजूद में अपने खुदा नजर आये।।



सवाल… Continue

Added by amod shrivastav (bindouri) on March 25, 2017 at 12:11pm — 2 Comments

नकार

मैंने उसके नाम

जितने गीत लिखे थे

उसने सभी नकार दिए हैं

उसने नकार दिया है

उन गीतों में अपने वजूद को

अपनी मौजूदगी को

अपने किसी भी अहसास को



उसे नहीं है याद

वो लवबर्ड का जोड़ा

जो बहुत प्यार से उसने सजाया था

मेरी अलमारी में

और उसे नहीं है याद वो रक्षा सूत्र

जो उसने मुझे

और मैंने उसको पहनाया था

उसने नहीं है याद वो सोलह रूपए जो

जबर्दस्ती उसने दिए थे समोसे वाले को

ये जानकार कि

मेरी जेब खाली है



उसने नकार… Continue

Added by मनोज अहसास on March 25, 2017 at 6:00am — 4 Comments

सुकून .......

सुकून .......

ढूंढता हूँ

अपने सुकून को

स्वयं की

गहराईयों में

छुपे हैं जहां

न जाने

कितने ही

जन्मों के जज़ीरे

अंधे -अक़ीदे

तसव्वुर में तैरते 

कुछ धुंधले से

साये

साँसों के मोहताज़

अधूरी तिश्नगी के

कुछ लम्हे

ज़िस्म पर आहट देते

ख़ौफ़ज़दा

कुछ लम्स



खो के रह गया हूँ मैं

ग़ुमशुदा दौर के शानों पर ग़ुम

अपने सुकून को ढूंढते ढूंढते

क्या

कर सकूंगा…

Continue

Added by Sushil Sarna on March 23, 2017 at 10:00pm — 4 Comments

अशफाक-मंगल औ भगत को मत भुलाना तुम ( बैजनाथ शर्मा ‘मिंटू’)

अरकान-  1222  1222  1222  1222 

 

मुहब्बत में सनम हरदम न मुझको आजमाना तुम|

अकेलापन सताता है कि वापस आ भी जाना तुम|

 

मुहब्बत खेल है बच्चों का शायद तुम समझते हो,

अगर घुट-घुट के मरना है तो फिर दिल को लगाना तुम,

 

वतन के नाम कर देना जवानी-ऐशोइशरत औ

कटा देना ये सर अपना मगर सर मत झुकाना तुम|

 

कफस में डाल के दुश्मन को मौका और मत देना ,

उड़ा के सर ही दुश्मन का धरम अपना निभाना तुम|

 

मुहब्बत धार है…

Continue

Added by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on March 23, 2017 at 7:00pm — 5 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -चुप कह के, क़ुरआन, बाइबिल गीता है - ( गिरिराज )

22   22   22   22   22   2

हर चहरे पर चहरा कोई जीता है

और बदलने की भी खूब सुभीता है

 

सांप, सांप को खाये, तो क्यों अचरज हो

इंसा भी जब ख़ूँ इंसा का पीता है

 

अर्थ लगाने की है सबको आज़ादी

चुप कह के, क़ुरआन, बाइबिल गीता है

 

भेड़, बकरियों, खर , खच्चर , हर सूरत में

अब जंगल में जीता केवल चीता है

 

बादल तो बरसा था सबके आँगन में

उल्टा बर्तन रीता था, वो रीता है

 

फर्क हुआ क्या नाम बदल के सोचो…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on March 23, 2017 at 8:57am — 6 Comments

तरही गजल

2122 2122 212



बस झुके हमको तो सबके सर मिले

बुत यहाँ भारी ज़माने पर मिले



काँच के जिनके बनें हैं घर यहाँ

हाथ में उनके ही बस पत्थर मिले।



विष गले में रख सके जग का सकल

है कहाँ मुमकिन कि फिर शंकर मिले।



दिल में उनके है धुआँ गम का बहुत

पर मिले जिससे भी वो हँसकर मिले



फूल को कैसे समझ लें फूल जब

पास उसके ही हमें खंजर मिले



मिल गया अब रहनुमा देखो नया

झोपड़ी को भी नया छप्पर मिले



हैं जहाँ पर दौलतों की… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on March 21, 2017 at 9:00pm — 12 Comments

ई-मौजी ...

ई-मौजी ...

आज के दौर में

क्या हम ई-मौजी वाले

स्टीकर नहीं हो गए ?

भावहीन चेहरे हैं

संवेदनाएं

मृतप्रायः सी जीवित है



अब अश्क

अविरल नहीं बहते

शून्य संवेदनाओं ने

उन्हीं भी

बिन बहे जीना

सिखा दिया है

हर मौसम में

सम भाव से

जीने का

करीना सिखा दिया है

अब कहकहा

ई-मौजी वाली

मुस्कान का नाम है

ई-मौजी सा ग़म है

ई-मौजी से चहरे हैं

ई-मौजी से…

Continue

Added by Sushil Sarna on March 21, 2017 at 5:30pm — 8 Comments

ससुराल की पहली होली(हास्य कविता)राहिला

करेंगें दम से खूब धमाल,

इक दिन आगे पहुंचे ससुराल।

पहली होली संग साली के,

सोच के हो गये गुलाबी गाल।।



हुयी रात जो घोड़े बेचे,

सो गये हम ,चादर को खेंचे।

ले कालौंच,खड़िया और गेरू,

बैठी चौकड़ी,खाट के नीचे।



हो गयी शुरू ,रात से होली ,

इधर अकेले ,उधर हुल्लड़ टोली,

गब्बर सिंह बन,देख के खुद को

भूल गये सब हंसी ठिठोली ।



खूब उड़ा फिर अबीर ,गुलाल

मुंह काला ,अंग पीला लाल,

पकड़ ,पकड़ के ऐसा पोता

उड़ गये तोते देख धमाल।।…

Continue

Added by Rahila on March 21, 2017 at 2:00pm — 14 Comments

ग़ज़ल (इंसानियत)

ग़ज़ल (इंसानियत)



2212 2212 2212 2212



इंसान के खूँ की नहीं प्यासी कभी इंसानियत,

फिर भूल तुम जाते हो क्यों अक्सर यही इंसानियत।



जो जिंदगी तुम दे नहीं सकते उसे लेते हो क्यों,

पर खून बहता ही रहा रोती रही इंसानियत।



जब गोलियाँ बरसा जमीं को लाल खूँ से तुम करो,

संसार में आतंक को ना मानती इंसानियत।



हे जालिमों जब जुल्म तुम अबलों पे हरदम ही करो,

मजलूम की आहों में दम को तोड़ती इंसानियत।



थक जाओगे तुम जुल्म कर जिंदा रहेगी ये… Continue

Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on March 21, 2017 at 12:33pm — 7 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -तड़प तड़प के क्यूँ वो बाहर निकले हैं - ( गिरिराज )

22   22  22  22  22  2

छिपे हुये फिर सारे बाहर निकले हैं

फिर शब्दों के लेकर ख़ंज़र निकले हैं

 

मोम चढ़े चहरे गर्मी में जब आये  

सबके अंदर केवल पत्थर निकले हैं

 

आइनों से जो भी नफ़रत करते थे   

जेबों मे सब ले के पत्थर निकले हैं

 

बाहर दवा छिड़क भी लें तो क्या होगा

इंसाँ  दीमक जैसे अन्दर निकले हैं

 

अपनी गलती बून्दों सी दिखलाये, पर्

जब नापे तो सारे सागर निकले हैं

 

औंधे पड़े हुये हैं सागर…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on March 21, 2017 at 9:48am — 16 Comments

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