Added by Manan Kumar singh on March 28, 2017 at 1:30pm — 5 Comments
1222 1222 122
मिलेगा क्या तुम्हें परदेश जा कर
रही माँ पूछती आँसू बहा कर
तड़पता छोड़कर तन्हा शजर को
परिंदा उड़ गया पर फड़फड़ा कर
बहल जाये विकल मासूम बचपन
नजर भर देख ले माँ मुस्कुरा कर
है पल पल टूटती साँसों की माला
बिता लो चार पल ये हँस हँसा कर
न जाओ छोड़कर 'ब्रज' कुंज गलियाँ
दरख्तों ने कहा ये कसमसा कर
.
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 27, 2017 at 11:00pm — 10 Comments
Added by Rahila on March 27, 2017 at 10:00pm — 9 Comments
ख़्वाब ...
नींद से आगे की मंज़िल
भला
कौन देख पाया है
बस
टूटे हुए ख़्वाबों की
बिखरी हुई
किर्चियाँ हैं
अफ़सुर्दा सी राहें हैं
सहर का ख़ौफ़ है
सिर्फ
मोड़ ही मोड़ हैं
न शब् के साथ
न सहर के बाद
कौन जान पाया है
कब आता है
कब चला जाता है
ज़िस्म की
रगों में
हकीकत सा बहता है
अर्श और फ़र्श का
फ़र्क मिटा जाता है
सहर से पहले
जीता है
सहर से पहले ही
मर जाता है…
Added by Sushil Sarna on March 27, 2017 at 7:06pm — 5 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on March 27, 2017 at 6:51pm — 1 Comment
Added by Naveen Mani Tripathi on March 27, 2017 at 2:37pm — 9 Comments
काले कोलतार की चमक लिए पक्की सड़क । वहीं बगल में थोड़ी निचाई पर पक्की सड़क के साथ-साथ ही चलती एक पगडंडी ।
सड़क पर लोगों की खूब आमोदरफ्त रहती, गाड़ियों का आवागमन रहता । अपना मान बढ़ता देख सड़क इतराती रहती । एक दिन उसने पगडंडी से कहा – "मेरे साथ चल कर क्या तू मेरी बराबरी कर लेगी । कहाँ मैं चमकती हुयी चिकनी सड़क और कहाँ तू कंकड़-पत्थर से अटी हुयी बदसूरत सी पगडंडी । महंगी से महंगी और बड़ी से बड़ी गाडियाँ मेरे ऊपर से आराम से गुजर जाती हैं । और तू...हुंह... ।" क्यों अपना समय बेकार करती है । यहीं रुक…
ContinueAdded by Neelam Upadhyaya on March 27, 2017 at 2:00pm — 3 Comments
#गजल#-103
.
कुर्सियाँ किसकी हुई हैं बोलिये भी
गाँठ में क्या-क्या छिपा है खोलिये भी।1
आपको भी क्या न करना पड़ गया है
हो न सकते साथ जिनके,हो लिये भी।2
जानते सब कुर्सियों की कीमतें हैं
हम भुला खुद को जरा-सा तोलिये भी।3
घोलते आये फ़िजां में क्या नहीं कुछ
अब जहर फिरसे यहाँ मत घोलिये भी।4
कुर्सियों के ताव में कुछ कर गये थे
चोट खायी खूब हमने गो लिये। भी।5
@मौलिक व अप्रकाशित)
Added by Manan Kumar singh on March 27, 2017 at 9:30am — 9 Comments
.
समझ पाये जो ख़ुद के पार आये,
तेरी दुनिया में हम बेकार आये.
.
बहन माँ बाप बीवी दोस्त बच्चे,
कहानी थी.... कई क़िरदार आये.
.
क़दम रखते ही दीवारें उठी थीं,
सफ़र में मरहले दुश्वार आये.
.
शिकस्ता दिल बिख़र जायेगा मेरा,
वहाँ से अब अगर इनकार आये.
.
उडाये थे कई क़ासिद कबूतर,
मगर वापस फ़क़त दो चार आये.
.
समुन्दर की अनाएँ गर्क़ कर दूँ,
मेरे हाथों में गर पतवार आये.
.
अगरचे…
Added by Nilesh Shevgaonkar on March 26, 2017 at 6:00pm — 28 Comments
लखूचंद
=====
एक दिन कालेज के कुछ युवक लखूचंद के सामने ही उसकी जमकर तारीफ कर रहे थे ,
‘‘‘ अरे ये तो लखूचंद के एक हाथ का कमाल है , दोनों हाथ होते तो पूरे जिले में मिठाई के नाम पर केवल इन्हें ही जाना जाता। लेकिन यार , ये तो बताओ कि दूसरा हाथ क्या जन्म से ही ऐसा है या बाद में कुछ हो गया ?‘‘
बहुत दिन बाद लखूचंद को अपनी जवानी के दिन याद आ गए, बोले ,
‘‘ युवावस्था में मैं यों ही बहुत धनवान होने का सपना देखा करता । पिताजी कहते थे कि मैं उनकी हलवाई की दूकान सम्हालूं…
Added by Dr T R Sukul on March 26, 2017 at 11:54am — 1 Comment
Added by amod shrivastav (bindouri) on March 25, 2017 at 12:11pm — 2 Comments
Added by मनोज अहसास on March 25, 2017 at 6:00am — 4 Comments
सुकून .......
ढूंढता हूँ
अपने सुकून को
स्वयं की
गहराईयों में
छुपे हैं जहां
न जाने
कितने ही
जन्मों के जज़ीरे
अंधे -अक़ीदे
तसव्वुर में तैरते
कुछ धुंधले से
साये
साँसों के मोहताज़
अधूरी तिश्नगी के
कुछ लम्हे
ज़िस्म पर आहट देते
ख़ौफ़ज़दा
कुछ लम्स
खो के रह गया हूँ मैं
ग़ुमशुदा दौर के शानों पर ग़ुम
अपने सुकून को ढूंढते ढूंढते
क्या
कर सकूंगा…
Added by Sushil Sarna on March 23, 2017 at 10:00pm — 4 Comments
अरकान- 1222 1222 1222 1222
मुहब्बत में सनम हरदम न मुझको आजमाना तुम|
अकेलापन सताता है कि वापस आ भी जाना तुम|
मुहब्बत खेल है बच्चों का शायद तुम समझते हो,
अगर घुट-घुट के मरना है तो फिर दिल को लगाना तुम,
वतन के नाम कर देना जवानी-ऐशोइशरत औ
कटा देना ये सर अपना मगर सर मत झुकाना तुम|
कफस में डाल के दुश्मन को मौका और मत देना ,
उड़ा के सर ही दुश्मन का धरम अपना निभाना तुम|
मुहब्बत धार है…
ContinueAdded by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on March 23, 2017 at 7:00pm — 5 Comments
22 22 22 22 22 2
हर चहरे पर चहरा कोई जीता है
और बदलने की भी खूब सुभीता है
सांप, सांप को खाये, तो क्यों अचरज हो
इंसा भी जब ख़ूँ इंसा का पीता है
अर्थ लगाने की है सबको आज़ादी
चुप कह के, क़ुरआन, बाइबिल गीता है
भेड़, बकरियों, खर , खच्चर , हर सूरत में
अब जंगल में जीता केवल चीता है
बादल तो बरसा था सबके आँगन में
उल्टा बर्तन रीता था, वो रीता है
फर्क हुआ क्या नाम बदल के सोचो…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 23, 2017 at 8:57am — 6 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on March 21, 2017 at 9:00pm — 12 Comments
ई-मौजी ...
आज के दौर में
क्या हम ई-मौजी वाले
स्टीकर नहीं हो गए ?
भावहीन चेहरे हैं
संवेदनाएं
मृतप्रायः सी जीवित है
अब अश्क
अविरल नहीं बहते
शून्य संवेदनाओं ने
उन्हीं भी
बिन बहे जीना
सिखा दिया है
हर मौसम में
सम भाव से
जीने का
करीना सिखा दिया है
अब कहकहा
ई-मौजी वाली
मुस्कान का नाम है
ई-मौजी सा ग़म है
ई-मौजी से चहरे हैं
ई-मौजी से…
Added by Sushil Sarna on March 21, 2017 at 5:30pm — 8 Comments
करेंगें दम से खूब धमाल,
इक दिन आगे पहुंचे ससुराल।
पहली होली संग साली के,
सोच के हो गये गुलाबी गाल।।
हुयी रात जो घोड़े बेचे,
सो गये हम ,चादर को खेंचे।
ले कालौंच,खड़िया और गेरू,
बैठी चौकड़ी,खाट के नीचे।
हो गयी शुरू ,रात से होली ,
इधर अकेले ,उधर हुल्लड़ टोली,
गब्बर सिंह बन,देख के खुद को
भूल गये सब हंसी ठिठोली ।
खूब उड़ा फिर अबीर ,गुलाल
मुंह काला ,अंग पीला लाल,
पकड़ ,पकड़ के ऐसा पोता
उड़ गये तोते देख धमाल।।…
Added by Rahila on March 21, 2017 at 2:00pm — 14 Comments
Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on March 21, 2017 at 12:33pm — 7 Comments
22 22 22 22 22 2
छिपे हुये फिर सारे बाहर निकले हैं
फिर शब्दों के लेकर ख़ंज़र निकले हैं
मोम चढ़े चहरे गर्मी में जब आये
सबके अंदर केवल पत्थर निकले हैं
आइनों से जो भी नफ़रत करते थे
जेबों मे सब ले के पत्थर निकले हैं
बाहर दवा छिड़क भी लें तो क्या होगा
इंसाँ दीमक जैसे अन्दर निकले हैं
अपनी गलती बून्दों सी दिखलाये, पर्
जब नापे तो सारे सागर निकले हैं
औंधे पड़े हुये हैं सागर…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 21, 2017 at 9:48am — 16 Comments
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