Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 19, 2017 at 7:30pm — 6 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on March 19, 2017 at 5:23pm — 7 Comments
एक शब्द ....
एक शब्द टूट गया
एक शब्द रूठ गया
एक शब्द खो गया
एक शब्द सो गया
एक शब्द आस था
एक शब्द उदास था
एक शब्द देह था
एक शब्द अदेह था
एक शब्द में अगन थी
एक शब्द में लगन थी
एक शब्द जनम था
एक शब्द मरण था
एक शब्द प्यास था
एक शब्द मधुमास था
एक शब्द चन्दन था
एक शब्द क्रंदन था
एक शब्द मोह था
एक शब्द विछोह था
शब्दों की भीड़ थी
हर शब्द में पीर थी
नीर था शब्दों में
शब्द शब्द…
Added by Sushil Sarna on March 19, 2017 at 4:20pm — 8 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 19, 2017 at 3:25pm — 8 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 19, 2017 at 12:36am — 6 Comments
यादें......
यादें !
आज पर भारी
बीते कल की बातें
वर्तमान को अतीत करती
कुछ गहरी कुछ हल्की
धुंधलके में खोई
वो बिछुड़ी मुलाकातें
हाँ !
यही तो हैं यादें
ये भीड़ में तन्हाई का
अहसास कराती हैं
आँखों से अश्कों की
बरसात कराती हैं
सफर की हर चुभन
याद दिलाती हैं
जब भी आती हैं
ज़ख़्म कुरेद जाती हैं
अहसासों के शानों पर
ये कहकहे लगाती हैं
ज़हन की तारीकियों में…
Added by Sushil Sarna on March 18, 2017 at 9:30pm — 6 Comments
ग़ज़ल (दोस्तों की महरबानी हो गई )
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फ़ाईलातुन--फ़ाईलातुन --फाइलुन
यूँ न उनको बदगुमानी हो गई |
दोस्तों की महरबानी हो गई |
भूल बचपन के गये वादे सभी
उनको हासिल क्या जवानी हो गई |
नुकताची को क्या दिखाया आइना
उसकी फ़ितरत पानी पानी हो गई |
यूँ नहीं डूबा है मुफ़लिस फ़िक्र में
उसकी बेटी भी सियानी हो गई |
अजनबी के साथ क्या कोई गया
ख़त्म उलफत की कहानी…
Added by Tasdiq Ahmed Khan on March 18, 2017 at 8:48pm — 6 Comments
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 18, 2017 at 7:44pm — 3 Comments
1.प्यासा तालाब
पीपल उदास-सा
गाँव है चुप ।
2.हुक्का , खटिया
चौपाल है गायब
बीमार गाँव ।
3.दहेज प्रथा
परिवर्तित रूप
कैश का खेल ।
4.धरती छोड़
चाँद पर छलांग
पुकारे भूख ।
5.मिलन नहीं
प्यास है बरकरार
है इंतज़ार ।
6.ऐश्वर्य प्रेमी
संत उपदेशक
माया का खेल ।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Mohammed Arif on March 18, 2017 at 7:30pm — 4 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 17, 2017 at 9:05pm — 2 Comments
Added by जयनित कुमार मेहता on March 17, 2017 at 4:51pm — 5 Comments
221 2121 1221 212
पत्ता था, सब्ज़, टूटके खिड़की में आ गया
हस्ती शजर की बाकी है मुझको बता गया
माना हवाएँ तेज़ हैं मेरे खिलाफ़ भी
लेकिन जुनून लड़ने का इस दिल पे छा गया
खोने को पास कुछ भी नहीं था हयात में
किसकी तलाफ़ी हो अभी तक मेरा क्या गया
शायद ये दुनिया मेरे लिए थी नहीं कभी
फिर शिकवा क्यों करुँ कि खुदा फ़ैज़ उठा गया
ख़्वाबों को ज़िन्दा करके भी क्या होता, दोस्तो!
मेरा जो वक्त था…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on March 17, 2017 at 2:30pm — 9 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on March 16, 2017 at 10:11pm — 12 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on March 16, 2017 at 4:14pm — 7 Comments
Added by SudhenduOjha on March 16, 2017 at 2:35pm — No Comments
दीवार के कान - लघुकथा –
शंकर सिंह एक अनुशासन प्रिय और जिम्मेवार अधिकारी थे। कारखाने में और कोलोनी में उनकी अच्छी छवि थी। लेकिन कल कारखाने में उनके साथ जो घटना हुई थी, उसने उनको विचलित कर दिया था। एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से मामूली वार्तालाप ने एक उग्र झड़प का रूप ले लिया। यूनियन लीडर्स के बीच में आने से मामला कुछ ज्यादा ही तूल पकड़ गया। मि० सिंह से हाथापाई तक हो गयी। मैनेजमेंट ने तुरंत मि० सिंह को घर भेज दिया था। उनके आने के बाद प्रेस वाले, मीडिया वाले भी कारखाने तक आगये…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on March 16, 2017 at 2:34pm — 4 Comments
चला गया ...
हवा
शयन कक्ष के परदों से
खेलती रही
टेबल पर पड़ी मैग्ज़ीन के पन्ने
वायु वेग से
बार बार
फड़फड़ाते रहे
तन्हा से पड़े
काफी के मग
खाली होते हुए भी
अपने में
बहुत कुछ समेटे थे
समेटे थे
अपने अंदर
अकेलेपन से बातें करते
वो क्षण
जो काफी के मग को
अधरों से लगाए
कनखियों से निहारते हुए
आँखों ने आँखों में
बिताये थे
समेटे थे…
ContinueAdded by Sushil Sarna on March 15, 2017 at 10:00pm — 10 Comments
ग़ज़ल
-------
(फऊलन -फऊलन -फऊलन -फअल )
क़ियामत की वो चाल चलते रहे |
निगाहें मिलाकर बदलते रहे |
दिखा कर गया इक झलक क्या कोई
मुसलसल ही हम आँख मलते रहे |
यही तो है गम प्यार के नाम पर
हमें ज़िंदगी भर वो छलते रहे |
मिली हार उलफत के आगे उन्हें
जो ज़हरे तअस्सुब उगलते रहे |
तअस्सुब की आँधी है हैरां न यूँ
वफ़ा के दिए सारे जलते रहे |
असर होगा उनपर यही सोच कर
निगाहों से आँसू…
Added by Tasdiq Ahmed Khan on March 15, 2017 at 8:51pm — 16 Comments
शंका और विश्वास के दोराहे पर
मन में पीली धुंधली उदास गहरी
बेमाप वेदना यथार्थों की लिए
स्वीकार कर लेता हूँ सभी झूठ
कि जाने कब कहाँ किस झूठ में भी
किसी की विवशता दिख जाए, या
मिल जाए उसकी सच्चाई का संकेत
कि जानता हूँ मैं, यह ठंडी पुरवाई
यह फैली हुई धूप नदी-झील-तालाब
सब कहते हैं ...
वह कभी झूठी नहीं थी
ऊँची उठती है कोई उभरती कराह
स्वपनों के अनदेखे विस्तार में
विद्रोह करते हैं मेरे…
ContinueAdded by vijay nikore on March 15, 2017 at 7:32pm — 12 Comments
Added by Rahila on March 15, 2017 at 11:28am — 4 Comments
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