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व्यथा

29

आँखों में भय लिये

आज्ञाकारिता तय किये,

क्षुधोदर की भूले

बड़ी देर के बाद बैठ पाया था।

कंपायमान हाथों से

चलायमान श्वासों से ,

भुंजे हुए महुओं की छोटी सी

पोटली बस खोल ही पाया था।

जीवन समर्पित कर

मालिक को अपना कर

स्मृत अहसानों ने

छोटा सा उलहना दे पाया था।

ज्वार की वह बासी रोटी

गिजगिजी बहुत मोटी

महुओं सहित इस अनोखे भोजन को

कर ही न पाया था।

मालिक ने पुकारा...…

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Added by Dr T R Sukul on November 23, 2015 at 10:30pm — 4 Comments

बड़ा डिजटल जमाना हो गया है

बड़ा डिजटल जमाना हो गया है

1222/1222/122



बड़ा डिजटल जमाना हो गया है

कठिन इज्जत बचाना हो गया है



पला माँ बाप की छाया जो बेटा

वही बेटा बेगाना हो गया है



खुला अस्मत लुटा आई है बेटी

मुहब्बत है बहाना हो गया है



सियासी हो गयी रिश्तों की दुनियां

जटिल रिश्ता निभाना हो गया है



गरीबों का हितैशी हूँ ये जुमला

चुनावी वोट पाना हो गया है



वो क्या जो देख बाबा रो पड़े हैं

कहा की घर पुराना हो गया… Continue

Added by amod shrivastav (bindouri) on November 23, 2015 at 2:28pm — 6 Comments

चलो आज रिश्ते बना कर निभालें

चलो आज रिश्ते निभा लें

122/122/122/122



चलो आज रिश्ते बनाकर निभालें.

खयालों को अपना नया घर बनालें.



बढ़ाओ मुलायम हथेली ये प्यारी

पिसाई हिना है इसे संग रचालें



बनोगी गुड़िया तो गुड्डा बनूगां

चलो साथ बैठो की शादी मनालेँ



लगे कुछ बुरा तो मुझें माफ़ करना

मुहब्बत है ऐसी की पागल बना ले



तेरी आँख भीगी न प्यारी लगेगी

तू नजरों में मोती ख़ुशी के सजा ले



न रश्में रिवाजे न मजहब पाबन्दी

मिटा के सभी जद दुनियाँ बसा… Continue

Added by amod shrivastav (bindouri) on November 23, 2015 at 2:24pm — 5 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
हो शुरू जंगे- मुस्तहब कोई- शिज्जु शकूर

2122 1212 112/22

हो शुरू जंगे-मुस्तहब कोई

लाये इक इन्किलाब अब कोई



यूँ अदब के बदल गये मा’ने

होता है रोज़ बे-अदब कोई



आज ग़ारतगरों के कहने पर

शह्र फूँके है बे-सबब कोई



लफ़्ज़ तेरे, तेरा तवाफ़ करें

सीख-ले बोलने का ढब कोई



आग फिरका-परस्ती की ऐ दोस्त

और भड़के बुझाये जब कोई



जब उलझ जाये बात बातों में

इक सिरा ढूँढ लेना तब कोई



सूरते-हाल पूछिये न ‘शकूर’

रोज़ नाज़िल हो इक ग़ज़ब कोई



-मौलिक व… Continue

Added by शिज्जु "शकूर" on November 23, 2015 at 12:57pm — 13 Comments

जिन्दगी की ठोकरों ने मुस्कुरा कर ये कहा। " अज्ञात "

जिन्दगी में जीत का तब,                              

कुछ नहीं संशय रहा,                                 

धैर्य का जब जब सहारा,                             

हर घड़ी , हरशय रहा ।

जिन्दगी में दिन सितम के,                        

भी सभी  कट जायेंगे ।                                       

जिन्दगी की ठोकरों ने ,                          

जब मुस्कुरा कर ये कहा।                                              

रात काली भी गुजर…

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Added by Ajay Kumar Sharma on November 22, 2015 at 11:52am — 3 Comments

अब ज़रा थक सा गया हूं, मैं

दुनिया देती मुझे बधाई, कि मैं कितना संभल गया

मुझे ग्लानि, आंख में पानी, कि मैं इतना बदल गया

एक समय होता था जब मैं,

न्याय की बात पर अड़ जाता था

आग धधकती थी सीने में

हर जुल्मी से भिड़ जाता था

अब रोज़ द्रौपदी होती नंगी, खून ज़रा भी नहीं खौलता

कोई सूरज को भी चांद कहे तो, चुप रहता हूं नहीं बोलता

कहते हैं सब भला हुआ कि अब चुक सा गया हूं मैं

सच तो ये है लेकिन अब, ज़रा थक सा गया हूं मैं .

थक गया हूं झूठे रिश्तों  का, बोझ…

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Added by प्रदीप नील वसिष्ठ on November 22, 2015 at 10:00am — 11 Comments

जो ख़ुशी से दान दे वो ग़म कभी करता नही है।

२१२२ २१२२ २१२२ २१२२ - रमल मुसम्मन सालिम

जो ख़ुशी से दान दे वो ग़म कभी करता नही है।

जो किसी पे जान दे वो आह भी भरता नहीं है ।

है अगर दिल में ख़ुशी तो चैन से सोते सभी हैं,

गम समाया है कहीं तो नींद भी भरता नहीँ है ।

हार हो या जीत हो ये तो कहीं वश में नहीं है ,

दिल लगाकर छोड़ देता वो कभी डरता नहीं है।

राह में चलते हुए भी घर बसा लेते कहीं भी ,

रेत का घर जब गिरे ग़म कोई भी हरता नहीं है ।

फूल हो जब डाल पे झूमे हवा में हर ख़ुशी में ,

तोड़ कर कोई रखे जब आह…

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Added by Shyam Narain Verma on November 21, 2015 at 4:30pm — 2 Comments

जीवन की पाठशाला (लघुकथा)

आगरा से लखनऊ का छ-सात घंटे का सफ़र | ट्रेन खचाखच भरी हुई थी, पर भला हो उस दलाल का,जिसने सौ रूपये ज्यादा लेकर सीट कन्फर्म करा दी थी | वरना सिविल सेवा परीक्षा देने जाना बड़ा भारी लग रहा था | दोनों ही सहेलियों ने गेट से लगी सीट पर धम्म से बैठ कब्ज़ा जमा लिया था | सामने फर्श पर सामान्य कद-काठी का शरीरधारी, किसी दूसरे ग्रह का प्राणी लग रहा था | मैला-कुचैला सा कम्बल अपने शरीर के चारो तरफ लपेटे बैठा था | रह-रह सुमी उसे हिकारत…

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Added by savitamishra on November 21, 2015 at 10:00am — 11 Comments

" आत्मघात " - [ लघुकथा ] _शेख़ शहज़ाद उस्मानी (35)

एक तरफ मुहब्बत, दूसरी तरफ ममता और दोनों ही तरफ़ सिर्फ उसके फर्ज़ । उलझे हुए रास्ते इस वक़्त सुधीर को बिछी हुई रेल की पटरियों की तरह लग रहे थे। वह करे भी तो क्या। उसके दिमाग़ में अपने और परायों की टिप्पणियाँ बिज़ली के प्रवाह की तरह उसे झकझोर रहीं थीं।



"माँ बीमार रहती है, बहू आ जायेगी तो एक सहारा हो जायेगा "



" ट्यूशन की कमाई से घर-गृहस्थी चलायेगा क्या ?"



"मुहब्बत तो कर ली, प्रेमिका जब बीवी बनेगी तब समझ में आयेंगे आटे-दाल के भाव और बीवी के ताव"



"अरे, उस… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 21, 2015 at 9:27am — 9 Comments

और,सारे देखने में हैं तमाशा (ग़ज़ल)

2122 2122 2122

भागता  ही जा रहा है बेतहाशा..

आदमी के हाथ लगती बस हताशा..

मुस्कराहट लब से गायब हो रही है,

पाँव फैलाए खड़ी जड़ तक निराशा..

नष्ट होती जा रही वो स्वर्ण-मूरत,

वर्षों में पुरखों ने जिसको था तराशा..

सुबह का भूला अभी लौटेगा शायद,

सूर्य की अंतिम किरण तक है ये आशा..

है न भक्तों को कफ़न तक भी मयस्सर,

देवता कुर्सी पे खाते हैं बताशा..

जान पंछी की निकलने पर तुली है,

और सारे…

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Added by जयनित कुमार मेहता on November 20, 2015 at 10:02pm — 6 Comments

दिन सुनहरा हो गया- बैजनाथ शर्मा 'मिंटू'

अरकान -   2122   2122   2122   212

 

आप आये और मेरा दिन सुनहरा हो गया|

आपको देखा तो मेरा फूल चेहरा हो गया|

  

कुछ समय पहले तलक तो थी हरी यें वादियाँ ,

आपके जाते ही तो हर  सिम्त सहरा हो गया|

क़त्ल का ए सिलसिला क्यों और आगे बढ़ गया,

जब से मेरे गाँव में कुछ सख्त पहरा हो गया |

 

लाख चीखो और चिल्लाओ सुनेगा कौन अब,

हाय पत्थर दिल ज़माना आज बहरा हो गया|

 

जख्म तो बस जख्म था जो भर भी सकता था मगर…

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Added by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on November 20, 2015 at 10:00pm — 1 Comment

बढ़ती हुई महंगाई में हाल बुरा है। " अज्ञात "

बढ़ती हुई महंगाई में हाल बुरा है,             

कुछ पूछो तो कहते हैं, सवाल बुरा है।

पेट्रोल, डीजल, सब्जियां आकाश छू रहीं,

कम होने की उम्मीद का, खयाल बुरा है।



संसद में अमन चैन है, धमाल हो रहा,      

जनता की रसोई में अब, बवाल बुरा है।

      

ठोकते हैं ताल, अपने राग में तल्लीन,        

उठा पटक का इनका सब, चाल बुरा है।



दुश्मन हैं ये आपसी, दुनिया की नज़र में,     

नेता की शकल में हर, दलाल बुरा है…

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Added by Ajay Kumar Sharma on November 20, 2015 at 9:05pm — No Comments

साहित्यकार कलाकार या गिरगिट के अवतार [व्यंग्य]. अखिलेश कृष्ण

अजी सुनते हो ..... पप्पू के पापा ।

 

धीरे बोलो भागवान, पड़ोसी क्या सोचेंगे।

 

मैंने कहा छोटे बड़े मँझले साहित्यकारों और पुरस्कृत कुछ लोग लुगाइयों में सम्मान लौटाने की होड़ लगी है। इन सब के थोपड़े हर चैनल्स में बार बार दिखाया जा रहा है। आप भी अपना सम्मान लौटा दीजिये।

 

कौन सा सम्मान ?

 

ये लो, ऐसे पूछ रहे हो जैसे 10–20  पुरस्कार और सम्मान प्राप्त कर चुके हो और सिर्फ नोबेल पुरस्कार ही लेना बाकी है। अरे जीवन में एक ही बार तो सम्मानित…

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Added by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on November 20, 2015 at 2:19pm — 9 Comments

दोहे

पिय बिन चित चंचल रहे, सावन जारे देह।
बूँद बढ़ाये अगन को, विरहिणि बिछुड़ा नेह।।

बिरहा ढोला लोरिकी, चैती को नही मान।
नंगी धुन पर नाचता, पूरा हिन्दुस्तान ।।

माता जी मम्मी भईं, हुए पिता जी डैड।
यह संस्कृति नंगी हुई, हिन्दुस्तानी मैड।।

क्या था अभिनय भूलकर, आज दिखाते जिस्म।
मजबूती से फाँसता, अश्लीलता तिलिस्म।।

(मौलिक व अप्रकाशित

Added by आशीष यादव on November 20, 2015 at 7:30am — 8 Comments

गीत - कितना तुझको याद किया.( बैजनाथ शर्मा ‘मिंटू’)

श्याम हमारे दिल से पूछो, कितना तुझको याद किया|

भूल गई मैं सारे जग को, फिर भी तेरा नाम लिया|

यादों में तेरी मुरली वाले, जीवन यूँ ही गुजार दिया,

श्याम हमारे दिल से पूछो, कितना तुझको याद किया|

 

देख के तेरी भोली सूरत हम भी धोखा खा ही गए,

मोहन तेरी मीठी-मीठी बातों में हम आ ही गए,

हार गए जीवन में सब फिर भी तेरा नाम लिया

श्याम हमारे दिल से पूछो, कितना तुझको याद किया|

 

करती हूँ कोशिश मैं मोहन याद हमेशा तुम आओ,

रह नही सकती…

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Added by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on November 19, 2015 at 8:30pm — 2 Comments

अज्ञात था अज्ञात हूँ अज्ञात रहने दे मुझे।

मौन रहकर साज भी,                            

हैं ध्वनित होते नहीं,                                    

कुछ बोलने दे आज,                                      

मन की बात कहने दे मुझे ।                  

है नहीं ख्वाहिश कि,                        

सुन्दर सा सरोवर मैं बनूँ,                           

धार हूँ नदिया की मैं,                             

मत रोक बहने दे मुझे ।                                                            हर एक पल भी…

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Added by Ajay Kumar Sharma on November 19, 2015 at 8:08pm — 5 Comments

मिटता मन का मैल(लघुकथा)

अपना पेट काटकर छौटे भाई को पढ़ाया।अपनी जवानी का अधिकत्तर हिस्सा मजूरी करके गुज़ारा।मेहनत करने में दिन न देखा न कभी रात।भाई होनहार जो था पढ़ाई में भी पूरा तेज और लोकव्यवहार में बिलकुल सधा हुआ।

पता नहीं क्या हुनर बख्शा था ऊपरवाले ने उसे।लोगों को झट से मना लेता था और उनके मन तक को पढ़ जाता था।

जब उसके कुछ करने का समय आया तो ,"मुझे नहीं रहना आपके साथ और न ही मैं आपके लिए कुछ कर पाऊँगा।मुझे मेरी ज़िन्दगी अपने तरीके से जीनी है।मैं जा रहा हूँ।मुझे ढूँढने की भी कभी कौशिश मत करना।" बस इतना… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 19, 2015 at 8:06pm — 11 Comments

फसल [ कविता अतुकांत ]

मेरी बेटी ने गमले में

लॉलिपॉप बो दिया हैI

खुद को पूरा भिगो कर

पानी भी देती है

मिठास की लहलहाती फसल का

इंतज़ार कर रही है I

पगली ने उस दिन

कागज़ का तिरंगा भी बो दिया था

कि  ढेर सारे तिरंगे 

ढेर सारा देश प्रेम उगेगा I

बच्चों की बातें  हैं 

ऐसी ही बेतुकी  ,नासमझ I

हम तो बड़े हैं ,समझदार हैं

हम थोड़ी करते हैं विश्वास 

इन बातों पर ,हैं ना ?

मौलिक व् अप्रकाशित 

Added by pratibha pande on November 19, 2015 at 5:30pm — 8 Comments

नत मस्तक आभार ( दोहें) - लक्ष्मण रामानुज

ईश कृपा से ही हुऐ, सात दशक ये पार,

बाँट सका सुख-दुख सदा,उन सबका आभार | - 1

 

सहयोगी मन भाव से, दिया जिन्होनें साथ,

आभारी उनका सदा,  भली करेंगे नाथ |  - 2

 

सीख मिली जिनसे सदा, उनका ऐसा कर्ज,

चुका सकूँ क्या मौल मै, पूरा करने फर्ज | = 3

 

गुरुजन को मै दे सकूँ, क्या ऐसी सौगात,

सूरज सम्मुख दीप की, आखिर क्या औकात |-4

 

कृपा करे माँ शारदा, तब कुछ मिलता ज्ञान,

विद्वजनों के योग से, लिया सदा संज्ञान | =…

Continue

Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 19, 2015 at 5:00pm — 8 Comments

ग़ज़ल.................जान' गोरखपुरी

122 122 122 122



अजब इक तमाशा है ये ज़िन्दगी भी।

बिछड़ना है सबकुछ मगर दिल्लगी भी।।



बहुत बेमुरव्वत है तासीर दिल की।

मिली जितनी उतनी बढ़ी तिश्नगी भी।।



जमीं हो या आँखें...ख़ुशी हो या हो गम।

है अच्छी नही देर तक खुश्कगी* भी।। (सूखापन)



कहानी मुहब्बत की है तो पुरानी।

नयी सी मगर इसमें है ताजगी भी।।



न समझा कोई हुस्नो-इश्को-वफ़ा पर।

हरिक को है पर इनसे बावस्तगी* भी।। (सम्बद्धता)



ये माना कि बरबादियाँ भी बहुत की।…

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Added by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on November 19, 2015 at 1:30pm — 6 Comments

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