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दस्तूर इस जहाँ के हैं देखे अजीब अजीब (१९)

(२२१ २१२१ १२२१ २१२  )

दस्तूर इस जहाँ के हैं देखे अजीब अजीब

दुश्मन भी एक पल में बने देखिये हबीब

***

बनती बिगड़ती बात अचानक कभी कभी

बिगड़े नसीब वालों के खुल जाते हैं नसीब

***

वादा किया था हम से सजा लेंगे ज़ुल्फ़ में

लेकिन सजा है ज़ीस्त में क्यों आपके रक़ीब

***

नज़दीक आज लग रहा होता है दूर कल

जो दूर दूर रहता वो हो जाता है क़रीब

***

होता है पर कभी कभी ऐसा भी मो'जिज़ा

बनता ग़रीब बादशा और बादशा ग़रीब

***

हैरत है बातिलों…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on January 27, 2019 at 5:00pm — 4 Comments

ग़ज़ल : मुझसे मत बोलिए मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है

बह्र : 2122 1122 1122 22/112

मैंने देखा है कि दुनिया में क्या क्या होता है

मुझसे मत बोलिए मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है

 

इश्क़ ही सबसे बड़ा ज़ुर्म है इस दुनिया में

ये ख़ता कर लो तो हर शख़्स ख़फ़ा होता है

 

जो गलत करते हैं, वो लोग सही होते हैं

और जो अच्छा करे तो वो बुरा होता है

 

मैं भी इस ज़ख़्म को नासूर बना डालूँगा

दर्द बतलाओ मुझे कैसे दवा होता है

 

कभी दिखता था ख़ुदा मुझको भी मेरे अन्दर

और अब इस पे भी…

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Added by Mahendra Kumar on January 27, 2019 at 11:30am — 10 Comments

नफरतों को छोड़ लगता- ग़ज़ल

ग़ज़ल

2122 2122 2122 212

नफरतों को छोड़ लगता पास चल कर आ गए

हो न कुर्सी दूर फिर, वो दल बदल कर आ गए।

जंगलों पे राज करने का जुनूँ जो सर चढ़ा

शेर जैसी शक्ल में गीदड़ भी ढल कर आ गए।

इश्क में देखो उन्होंने यूँ निभाई है वफ़ा

चाहने वाले के सारे ख़्वाब दल कर आ गए।

ठंड की जो चाह में उन तक गए ले मन-बदन

गुप्त शोलों में वो बस चुपचाप जल कर आ गए।

सामने कमजोर प्राणी उनको जो दिखने लगा

है गज़ब सारे शिकारी ही मचल कर आ…

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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on January 27, 2019 at 6:30am — 8 Comments

अनरोई आँखें ...

अनरोई आँखें ...


बहुत रोईं
अनरोई आँखें
मन की गुफाओं में
अनचाहे गुनाहों में
शमा की शुआओं में
अंधेरों की बाहों में
बेशजर राहों में
किसी की दुआओं में
प्यासी निगाहों में
खामोश आहों में
सच
बहुत रोईं
ये कम्बख़्त
अनरोई आँखें

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on January 26, 2019 at 5:30pm — 4 Comments

समझ न आया कि पत्थर से प्यार कैसे हुआ  ( 18)

समझ न आया कि पत्थर से प्यार कैसे हुआ 

हसीन हादसे का मैं शिकार कैसे हुआ 

***

कहा है तूने कि ये हादसा नहीं है गुनाह 

हुआ गुनाह तो फिर बार बार कैसे हुआ 

***

हुई है कोई ग़लतफ़हमी आपको मुंसिफ़ 

करे जो प्यार कोई गुनहगार कैसे हुआ 

***

करेगा कौन यक़ीं गर मुकर भी जाओ तो 

चला न तीर तो फिर आर पार कैसे हुआ …

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on January 26, 2019 at 2:30pm — 12 Comments

गणतंत्र - एक सूक्ष्म कविता - डॉo विजय शंकर

सूक्ष्म कविता - गणतंत्र - डॉo विजय शंकर

गण का तंत्र
या
तंत्र का गण ?

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on January 26, 2019 at 10:47am — 6 Comments

आग नहीं वो पानी होगी- बसंत

बह्र - फैलुन *४ 

जो मेरी दीवानी होगी

आग नहीं वो पानी होगी

 

हाथ बढ़ाया है जब उसने

कुछ तो मन में ठानी होगी

 

एक नजर में लूट लिया दिल

कुछ तो बात पुरानी होगी

 …

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Added by बसंत कुमार शर्मा on January 25, 2019 at 3:42pm — 5 Comments

कुण्डलिया छंद -

1-

जन्मों तक होता नहीं, यात्राओं का अंत।

सभी सफर में हैं यहाँ,सुर नर संत महंत।।

सुर नर संत महंत, जन्म जिसने भी पाया।

पंचतत्व की एक, मिली सबको ही काया।।

मन में ईर्ष्या द्वेष, लिए अवसर जो खोता।

यात्रा में वह जीव, अस्तु जन्मों तक होता।।

2-

यात्रा का वर्णन करूँ, या फिर लिखूँ पड़ाव।

लिख दूँ सभी उतार भी, या फिर सिर्फ चढ़ाव।।

या फिर सिर्फ चढ़ाव, लिखूँगा विवरण पूरे।

कार्य हुए जो पूर्ण, और जो रहे अधूरे।।

हानि-लाभ सुख-दुक्ख, बराबर सबकी…

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Added by Hariom Shrivastava on January 25, 2019 at 12:00pm — 1 Comment

ग़ज़ल - गण हुए तंत्र के हाथ कठपुतलियाँ

ग़ज़ल   

गण हुए तंत्र के हाथ कठपुतलियाँ

अब सुने कौन गणतंत्र की सिसकियाँ

 

इसलिए आज दुर्दिन पड़ा देखना

हम रहे करते बस गल्तियाँ गल्तियाँ 

चील चिड़ियाँ सभी खत्म होने लगीं

बस रही हर जगह बस्तियाँ बस्तियाँ 

पशु पक्षी जितने थे, उतने वाहन हुए

भावना खत्म करती हैं तकनीकियाँ. 

कम दिनों के लिए होते हैं वलवले

शांत हो जाएंगी कल यही आँधियाँ   

अब न इंसानियत की हवा लग रही

इस तरफ आजकल बंद…

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Added by सूबे सिंह सुजान on January 25, 2019 at 6:27am — 4 Comments

ग़ज़ल - गण हुए तंत्र के हाथ कठपुतलियाँ

              ग़ज़ल 

गण हुए तंत्र के हाथ कठपुतलियाँ

अब सुने कौन गणतंत्र की सिसकियाँ

इसलिए आज दुर्दिन पड़ा देखना

हम रहे करते बस गल्तियाँ गल्तियाँ

चील चिड़ियाँ सभी खत्म होने लगीं

बस रही हर जगह बस्तियाँ बस्तियाँ

पशु पक्षी जितने थे, उतने वाहन हुए

भावना खत्म करती हैं तकनीकियाँ

कम दिनों के लिए होते हैं वलवले

शांत हो जाएंगी कल यही आँधियाँ

अब न इंसानियत की हवा लग…

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Added by सूबे सिंह सुजान on January 24, 2019 at 9:32pm — 7 Comments

अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस पर - एक कुण्डलिया छंद -

बेटी से परिवार है, बेटी से संसार।
बेटी है माता-बहिन, बेटी ही है प्यार।।
बेटी ही है प्यार, यही लछमी कहलाती।
वहीं बनाती स्वर्ग,जहाँ ये जिस घर जाती।।
सदा निभाती फर्ज, न होने देती हेटी।
पीहर सँग ससुराल, सदा महकाती बेटी।।
(मौलिक व आप्रकाशित)
**हरिओम श्रीवास्तव**

Added by Hariom Shrivastava on January 24, 2019 at 8:11pm — 2 Comments

किसी रिश्ते में हों गर तल्ख़ियाँ हरगिज़ नहीं बेहतर   (१७ )

किसी रिश्ते में हों गर तल्ख़ियाँ हरगिज़ नहीं बेहतर 

शजर पर गर हैं सूखी पत्तियाँ हरगिज़ नहीं बेहतर 

**

बसाने को बसा लो ज़ुर्म की अपनी हसीं दुनिया

मगर बदनाम जो हों बस्तियाँ हरगिज़ नहीं बेहतर 

***

नुमाइश कर रहे हो जिस्म की अच्छी नज़र चाहो

हुज़ूर ऐसी कभी ख़ुशफ़हमियाँ हरगिज़ नहीं बेहतर 

***

मुसीबत, मुश्किलें, आफ़ात, चिंता और ग़म भी संग

घरोंदे में घुसी ये मकड़ियाँ हरगिज़ नहीं बेहतर 

***

नहीं फ़र्ज़न्द को हासिल अगर कुछ काम थोड़े दिन  

मिलें  उसको…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on January 24, 2019 at 12:00pm — 12 Comments

गज़ल ( इश्क़ उम्मीद है)

2122, 1122, 1122, 22/112

सुर्ख़रू शोख़ बहारों सा चहक जाओगे

इश्क़ के बाग़ में आओ तो गमक जाओगे

गर इरादे हुए हैं बर्फ़ से ख़ामोश तो क्या

गर्मी-ए-इश्क़ में आ जाओ दहक जाओगे

इश्क़ की ताब का अंदाज़ा भला है तुमको

इसकी ज़द में ही फ़क़त आओ लहक जाओगे

रौनक-ए-इश्क़ की ताक़त को न ललकारो तुम

ख़ूब ज़ाहिद हो मगर तुम भी बहक जाओगे

इश्क़ ख़ुश्बू है इसे बांधने की ज़िद न करो

इसमें घुल जाओ तो दुनिया में महक जाओगे

इश्क़ के रंग व…

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Added by क़मर जौनपुरी on January 23, 2019 at 5:30pm — 7 Comments

तुम्हारी अगुवानी में

तुम्हारी अगुवानी में.... 

ज़रा ठहरो

मुझे पहले

तुम्हारी अगुवानी में

इन कमरों की बंद खिड़कियों को

खोल लेने दो

जब से तुम गए हो

हवा ने भी आना छोड़ दिया

अब तुम आये हो तो

साँसों को

ज़िंदगी का मतलब

समझ आया है

ज़रा ठहरो

पहले मुझे

तुम्हारी अगुवानी में

मन की दीवारों से

सारी उलझनों के जाले

उतार लेने दो

ताकि तुम्हें

बाहर जैसी खुली हवा का

अहसास दिला सकूं

इन घर की दीवारों…

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Added by Sushil Sarna on January 23, 2019 at 2:06pm — 6 Comments

ग़ज़ल गांव

2122 2122 2122

.
गांव भी अब तो शहर बनने लगा है
प्यार औ सद्भाव भी घटने लगा है

खुल गई है खूब शिक्षा की दुकानें
ज्ञान भी अब दाम पर बिकने लगा है

हो गये है लोग बैरी अब यहां भी
खून सड़कों पर बहुत बहने लगा है

गांव के हर मोड़ पर टकराव है अब
खेत औ खलियान तक जलने लगा है

सोच ’‘मेठानी‘’ हुआ है, क्या यहां पर
जो कभी बोया वही उगने लगा है


( मौलिक एवं अप्रकाशित )
- दयाराम मेठानी

Added by Dayaram Methani on January 23, 2019 at 12:00pm — 21 Comments

गज़ल - दिगंबर नासवा

मखमली से फूल नाज़ुक पत्तियों को रख दिया

शाम होते ही दरीचे पर दियों को रख दिया

 

लौट के आया तो टूटी चूड़ियों को रख दिया

वक़्त ने कुछ अनकही मजबूरियों को रख दिया

 

आंसुओं से तर-बतर तकिये रहे चुप देर तक  

सलवटों ने चीखती खामोशियों को रख दिया

 

छोड़ना था गाँव जब रोज़ी कमाने के लिए

माँ ने बचपन में सुनाई लोरियों को रख दिया 

 

भीड़ में लोगों की दिन भर हँस के बतियाती रही 

रास्ते पर कब न जाने सिसकियों को रख…

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Added by दिगंबर नासवा on January 23, 2019 at 9:30am — 13 Comments

कुछ हाइकु (23 जनवरी तिथि पर)

कुछ हाइकु :



1-

तेजस्वी नेता

ख़ून दो, आज़ादी लो

सदी-आह्वान

2-

नेताजी बोस

तेईस जनवरी

क्रांति उद्भव

3-

सच्चाई, फ़र्ज़

जीवन-बलिदान

बोस-आह्वान

4-

शहीद-मौत

स्वतंत्रता-मार्ग

इच्छा-शक्ति से

5-

शक्ति-संचार

असली राष्ट्रवाद

बोस-चिंतन

6-



नेताजी बोस

सैनिक आध्यात्मिक

भक्ति…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 22, 2019 at 8:06pm — 4 Comments

गद्दार बन गये जो ढब आदर किया गया - गजल

२२१/२१२१/ २२२/१२१२



पाषाण पूजने को जब अन्दर किया गया

हर एक देवता को तब पत्थर किया गया।१।



उनके वतन से थी अधिक कुर्सी निगाह में

दूश्मन को इसके वास्ते सहचर किया गया।२।



यूँ  तो  चुनाव  जीतने  बातें  विकास  की

पर हाल देश का सदा कमतर किया गया।३।



शासक कमीन दे गये हमको वफा का दंड

गद्दार बन गये  जो  ढब  आदर किया गया।४।



जन की भलाई में बहुत करना था काम…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 22, 2019 at 8:05pm — 7 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
एक रदीफ़ पर दो ग़ज़लें "छत पर " (गज़ल राज )

१.हास्य 

उठाई है़ किसने ये दीवार छत पर 

अब आएगा कैसे  मेरा यार छत पर 



अगर उसके वालिद  का ये काम होगा 

बिछा दूँगा बिजली का मैं तार छत पर



बताकर तू पढ़ती  ख़बर नौकरी की  

चली आना लेकर तू अख़बार छत पर



सुखाने को पापड़ या चटनी मुरब्बा 

करा मुझको अपना तू दीदार छत पर



गया उसके घर पे जो छुपते छुपाते 

बहुत ही कुटा मैं पड़ी मार छत पर



न तारे दिखे फ़िर  हुआ चाँद ग़ायब 

सुनी हड्डियों की जो झंकार छत पर…

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Added by rajesh kumari on January 22, 2019 at 11:45am — 13 Comments

एक ग़ज़ल मनोज अहसास

कहते हैं देख लेता है नजरों के पार तू

मेरी तरफ भी देख जरा एक बार तू

हर बार मान लेता हूं तेरी रजा को मैं

हर बार तोड़ता है मेरा एतबार तू

करने से मेरे कुछ नहीं होना अगर तो

अहसासे बेनियाजी दे मुझ में उतार तू

सूनी पड़ी है तेरे बिना दिल की महफिलें

दो पल तो इस दयार में आकर गुजार तू

मेरी रगों में भर गई है कितनी उलझनें

है थोड़ा सा चैन दे भी दे मुझको उधार तू

मेरी पुकार में नहीं है असलियत कोई

या फिर…

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Added by मनोज अहसास on January 21, 2019 at 10:05pm — 4 Comments

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