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शहीदों के नाम....

रक्त से जिनके सना था,तर-ब-तर कण-कण धरा का,

हिन्द पर कुर्बान थे, भारत के सच्चे लाल थे जो !

सिंह की गर्जन लिए, टूटे फिरंगी गीदड़ों पर,

भय रहा भयभीत जिनसे, काल के भी काल थे जो!!

देख कर वीरत्व जिनका, विघ्न पथ को छोड़ देता ।

स्वयं विपदा काँप जाती,हाथ तूफ़ां जोड़ लेता ।।

जो कनक-सदृश तपाकर स्वयं को, जीते थे हरदम ।

जो कि कायरता, गुलामी, स्वार्थ से रीते थे हरदम ।।

जिनके आगे पर्वतों का कद सदा बौना रहा था ।

तपते अंगारों पे हरदम,जिनका बिछौना रहा था ।।

उष्णता…

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Added by V.M.''vrishty'' on October 9, 2018 at 4:30pm — 14 Comments

मौत आंगन में आकर टहलती रही

212 212 212 212

जिंदगी रफ़्ता रफ़्ता पिघलती रही ।

आशिकी उम्र भर सिर्फ छलती रही ।।

देखते देखते हो गयी फिर सहर ।

बात ही बात में रात ढलती रही ।।

सुर्ख लब पर तबस्सुम तो आया मगर ।

कोई ख्वाहिश जुबाँ पर मचलती रही ।।

इक तरफ खाइयाँ इक तरफ थे कुएं ।

वो जवानी अदा से सँभलती रही ।।

जाम जब आँख से उसने छलका दिया ।

मैकशी बे अदब रात चलती रही ।।

देखकर अपनी महफ़िल में महबूब को।

पैरहन बेसबब वह बदलती रही…

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Added by Naveen Mani Tripathi on October 9, 2018 at 10:00am — 16 Comments

आता जाता कौन है - गजल

मापनी - २१२२ २१२२ २१२२ २१२ 

चुपके’ चुपके रात में यूँ आता’ जाता कौन है

रोज आकर ख्वाब में नींदें उड़ाता कौन है

था मुझे विश्वास जिस पर दे गया धोखा वही

एक आशा फिर नई दिल में जगाता कौन है

घाव मुझको ज़िन्दगी से कुछ मिले तो हैं, मगर…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on October 9, 2018 at 9:35am — 15 Comments

बलातकार्य (छंदमुक्त कविता)

बलात हालात बलात नियंत्रण में हैं न!
देश-देशांतर तिजारात आमंत्रण में हैं न!
आचार-विहार, व्यवहार-व्यापार, प्रहार,
घात-प्रतिघात धार अभियंत्रण में हैं न!
**
बदले 'बदले के ख़्यालात' चलन में हैं न!
अगले-पिछले अहले-वतन फलन में हैं न!
बापू तुम्हारे ही देश में, देशभक्तों के वेश में
नोट-वोट, ओट-चोट-वोट अवकलन में हैं न!


(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 8, 2018 at 11:30pm — 8 Comments

टुकड़ों में बटा आदमी - डॉo विजय शंकर

टुकड़ों में बटा आदमी 

टुकड़ों की बात करता है , 

टुकड़ों को छोटे , और छोटे 

टुकड़ों…

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Added by Dr. Vijai Shanker on October 8, 2018 at 10:05pm — 18 Comments

३ क्षणिकाएं....

३ क्षणिकाएं....

भावनाओं की घास पर

ओस की बूंदें

रोती रही

शायद

बादलों को ओढ़कर

रात भर

चांदनी

... ... ... ... ... ... .

गोद दिया

सुबह की ओस ने

गुलाब को

महक

तड़पती रही

अहसासों के बियाबाँ में

यादों की नोकों पर

... ... ... .. .. .. .. . .

आकाश

ज़िंदगी भर

इंसान को

छत का सुकून देता रहा

उसे

धूप दी, पानी दिया ,

ईश के होने का

अहसास दिया

मगर

वह रे इंसान

आया जो…

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Added by Sushil Sarna on October 8, 2018 at 7:07pm — 18 Comments

फिर आएंगे नेता मेरे गांव में |

फिर आएंगे नेता मेरे गांव में |

अबके लूँगा सबको अपने दाव में |

पूछूँगा सड़क क्यों बनी नहीं ?

हैण्ड पम्प क्यों  लगा नहीं ?

क्यों बिजली नहीं आई मेरे गांव में…

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Added by Naval Kishor Soni on October 8, 2018 at 5:00pm — 4 Comments

सिद्धिर्भवति कर्मजा-----ग़ज़ल

22 122 12

गीता में लिक्खा गया
सिद्धिर्भवति कर्मजा

बिन फल की चिंता करे
सद्कर्म करिए सदा

दिखता है जो कुछ यहाँ
सब खेल है काल का

ऊर्जा का सिद्धांत है
लक्षण है जो आत्म का

बदले हैं बस रूप ही
ऊर्जा हो या आत्मा

मौलिक अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 8, 2018 at 4:51pm — 8 Comments

गजल कहें - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२२१/२१२१/ १२२१/२१२



दिल से चिराग दिल का जलाकर गजल कहें

नफरत का तम जहाँ से मिटाकर गजल कहें।१।



पुरखे  गये   हैं   छोड़   विरासत   हमें   यही

रोते  हुओं  को   खूब  हँसाकर  गजल  कहें।२।



कोई न कैफियत है अभी जलते शहर को

आओ धधकती आग बुझाकर गजल कहें।३।



रखता नहीं  वजूद  ये  वहशत  का देवता

सोया जमीर खुद का जगाकर गजल कहें।४।



बैठा दिया दिलों में सियासत ने…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 8, 2018 at 6:34am — 14 Comments

मैं बहुत कुछ सोंचता रहता हूँ पर कहता नहीं

बह्र- 2122-2122-2122-212



ज्यों हवा दस्तक करे खटखट कोई होता नहीं।।

मैं बहुत कुछ सोंचता रहता हूँ पर कहता नहीं।।



इस तरह परछाई सा महसूस होता वो मुझे।

जैसे कोई दरमियाँ अपने है पर दिखता नहीं।।



हर बुढ़ापा रात भर कुछ खोजता है जाने क्या

नींद में भी जागता रहता है क्यों सोता नहीं ।।



चौक में करता नुमाइश ,वक्त भी दल्ला हुआ।

एक झटके में मुझे क्यों नग्न कर देता नहीं।।



इक समंदर कैद है आँखों में अपने दर्द का ।

जो भरा रहता है अंदर,पर… Continue

Added by amod shrivastav (bindouri) on October 7, 2018 at 11:06pm — 4 Comments

"अंखियों के झरोखों से" (लघुकथा)

होटलों में बर्तन धोने से लेकर नेताओं और अधिकारियों के पैर दबाने तक, मूंगफली बेचने से लेकर अख़बार बेचने तक सभी काम करने के साथ ही साथ उस अल्पशिक्षित बेरोज़गार के यौन-शोषण के कारण होशहवास खो गये थे, या किसी शक्तिवर्धक दवा के ग़लत मात्रा के सेवन से या अत्याधिक मानसिक तनाव के कारण उसकी अर्द्धविक्षिप्त सी हालत थी; किसी को सच्चाई पता नहीं! हां, सब इतना ज़रूर जानते थे कि बंदा है तो होनहार और मिहनती। जो काम दो, कर देता है। इसलिए सड़क पर आज भी उसकी ज़िन्दगी सुरक्षित चल रही है परिजनों की उपेक्षा और दयावानों…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 6, 2018 at 11:30pm — 7 Comments

रिश्तों की चिता--लघुकथा

चिता पर चाचाजी का शरीर लकड़ियों से ढंका हुआ पड़ा था और उसको आग लगाने की तैयारी चल रही थी. चाचाजी उम्र पूरा करके गुजरे थे इसलिए घर में बहुत दुःख का माहौल नहीं था लेकिन उनकी सेहत के हिसाब से अभी कुछ और साल वह सामान्य तरीके से जी सकते थे. अभी भी सारा परिवार एक में था इसलिए पूरा घर वहां मौजूद था. चचेरे भाई ने चिता जलाने के लिए जलती फूस को हाथ में लिया और चिता के चारो तरफ चक्कर लगाने लगा.

कुछ ही पल में चिता ने आग पकड़ ली और वह एक किनारे से एकटक जलती चिता को देखता रहा. चाचाजी से पिछले कई सालों से…

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Added by विनय कुमार on October 6, 2018 at 8:18pm — 14 Comments

ग़ज़ल



अभी तो यहाँ कुछ हुआ ही नहीं है ।

वो नादां उसे तज्रिबा ही नही है ।।1

उसे ही मिलेगी सजा हिज्र की अब ।

मुहब्बत में जिसकी ख़ता ही नहीं है ।।2

मिलेगा कहाँ से हमें कोई धोका ।

हमें आप का आसरा ही नहीं है ।।3

अगर आ गए हैं तो कुछ देर रुकिए ।

अभी तो मेरा दिल भरा ही नहीं है ।।4

है बेचैन कितना वो आशिक तुम्हारा ।

कहा किसने जादू चला ही नहीं है ।।5

जिधर जा रही वो उधर जा रहे हम ।

हमें जिंदगी से गिला ही नहीं…

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Added by Naveen Mani Tripathi on October 6, 2018 at 6:31pm — 8 Comments

'अंधवायु में प्राणवायु' (लघुकथा)

कोई 'रोज़ी-रोटी' और 'नोटों' के लिए तरस रहा था या बिक रहा था; तो कोई 'वोटों' और 'ओटों' के लिए तरस रहा था या बिक रहा था। आम जनता जानती थी कि हर मुकाम पर कहीं न कहीं 'दाल में कुछ काला' है क्योंकि सालों से उसने सब कुछ देखाभाला है; अपने आपको वक़्त-व-वक़्त 'चोटों' से उबारा है। तरक़्क़ी के मुद्दों पर नेता व अधिकारी सब अपनी-अपनी वफ़ा की सफाई पेश कर दूसरों पर छींटाकशी कर, अपनी ही जगहंसाई कर चिल्ला रहे थे; विरोधी बिलबिला रहे थे!

"ये डील नहीं .. मतलबियों को ढील है! .. राजनीति नहीं .. चील है! चीट है ...…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 5, 2018 at 9:03pm — 8 Comments

अजनबी लगता है ... ...

अजनबी लगता है ... ...

न वज़ह पूछी

न मौका मिला

वक्त सरकता रहा

कोई अपना

हर लम्हा

अजनबी लगता रहा

किसे आवाज़ दूँ

तारीकियों की क़बा में

उजालों को ओढ़ कर

खो गयी कोई तलाश

टूट गया

उसके साये होने का भ्रम

बावज़ूद ज़िस्मानी करीबी के

वो हर नफ़स

जाने क्यूँ

अजनबी लगता रहा

झूठ है

वो अजनबी है

मेरी तिश्नगी का

समंदर है वो

मेरे हर ख्वाब का

मंज़र है वो

मेरे ज़ह्न में सदियों से…

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Added by Sushil Sarna on October 5, 2018 at 6:07pm — 7 Comments

दो कवितायें मुक्तछंद

मौसम

धूप की तपन

विदा होने को तैयार

नन्ही कोपलों के फूटने का

पौधों को इंतजार

छांह को ढोते बादल

अब बूंदें चुराएँगे

इस कालचक्र के बीच

मौसम बदल जाएंगे ।

 

सीप

 

चमकते मोती

पलते सीप के सीने में

पिरोये जाकर धागों में

शोभा बढ़ाते गले की शान से

छुपाकर रखा मोती को

दर्द सजाकर सीने में

छाती चीरकर दिया…

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Added by Neelam Upadhyaya on October 5, 2018 at 4:13pm — 14 Comments

गीत-इसलिये हैं नैन घायल आँसुओं से तर-ब-तर-बृजेश कुमार 'ब्रज'

किसलिये हैं नैन घायल

आँसुओं से तर-ब-तर?

फिर किसी सुनसान कोने

चीख कोई जो उठी

रात की खामोशियों में

रातरानी रो उठी

दानवी अट्टाहसों में

आह तड़पी घुट गई

टूटती साँसें समेटे

लड़खड़ाती वो उठी

इस कदर बरपी क़यामत

बन गई मातम सहर

इसलिये हैं नैन घायल

आँसुओं से तर-ब-तर

है नहीं जग में ठिकाना

आँख जाए नीर का

मोल कोई दे सकेगा

वेदना का पीर का

जिस नज़र पे था भरोसा

घात भी उससे मिली

हाथ…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 4, 2018 at 6:00pm — 20 Comments

अपराधबोध-लघुकथा

ट्रैफिक सिग्नल की बत्ती लाल हो गयी थी तो उसने ब्रेक लगाया और बाहर देखने लगा. जाने और आने वालों की दो दो लेन थी और हर आदमी ने अपनी गाड़ी थोड़े थोड़े फासले पर खड़ा कर रखी थी. जोहानसबर्ग की यह बात उसे बेहद पसंद थी कि अमूमन हर व्यक्ति कानून का पूरी तरह से पालन करता था और शायद ही कभी लाल बत्ती पर सड़क पार करता था. हॉर्न बजाना तो बेहद असभ्यता की बात मानी जाती थी और किसी की गलती को जताने के लिए ही लोग हॉर्न बजाते थे.

रोज की तरह ही वह अफ़्रीकी नवयुवक, जिसे वह शक्ल से पहचानता था, लेकिन कभी उसने उसका…

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Added by विनय कुमार on October 4, 2018 at 4:50pm — 10 Comments

साफ़ सफाई- लघुकथा

गाँववालों की भीड़ इकठ्ठा हो चुकी थी, उनको भी पता था कि जब किसी गाड़ी में लोग आते हैं तो कुछ न कुछ बांटते हैं. गाड़ी में से कुछ पैकेट निकाले जा रहे थे और चारो तरफ खड़े लोगों में से कई निगाहें बड़ी हसरत से उन्हें निहार रही थीं.

कुछ समय बाद छोटा सा मंच सज गया और गाड़ी से आये कुछ लोगों ने गांववालों को समझाना शुरू किया "सफाई बहुत जरूरी है चाहे वह घर की हो या अपने शरीर की. आप लोग आज से यह प्रण कीजिये कि आगे से सफाई का पूरा ध्यान रखेंगे. आज हम लोग स्वछता से सम्बंधित सामग्री वितरित करेंगे".

बीमार…

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Added by विनय कुमार on October 3, 2018 at 4:32pm — 23 Comments

बेज़ुबान पहचान ...

बेज़ुबान पहचान ...

कितनी खामोशी होती है
कब्रिस्तान में
जिस्मों की मानिंद
कब्रों पर लिखे नाम भी
वक्त के थपेड़ों से
धीरे -धीरे
सुपुर्द-ए-ख़ाक हो जाते हैं


रह जाती है
कब्रों पर
उगी घास के नीचे
ख़ामोशी की कबा में सोयी
अपने -पराये रिश्तों की
बेज़ुबान पहचान

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 3, 2018 at 4:00pm — 10 Comments

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