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ग़ज़ल- निलेश "नूर"

ग़ज़ल 

गा गा लगा लगा/ लल/ गा गा लगा लगा

.

झीलों में ऐसे..... चाँद डिबोता हूँ आज भी,

आँखों में रख के आप को रोता हूँ आज भी.  

.

अब तक दरख्त जितने उगाए, बबूल हैं,

दिल में मगर मैं यादों को बोता हूँ आज भी.

.

आदत में था शुमार तेरे साथ जागना,

तेरे बगैर देर से सोता हूँ आज भी.

.

नमकीन पानियों से जो रंगत निखरती है,

रुख़सार आँसुओं से मैं धोता हूँ आज भी.

.

काँधे पे इक सलीब उठाए फिरा करूँ,

नाकामियों का बोझ मैं ढ़ोता हूँ आज…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on February 7, 2016 at 9:30pm — 16 Comments

आप कैसे देखते है?

आप कैसे देखते है?
उसे कैसे स्वीकारते है
दुलार्ते हैं या नकारते हैं
यह आप पर निर्भर है.
आपके समाज पर निर्भर है.
कैकेई भी, कौशल्या भी,
देवकी और यशोदा भी
वाचाल मंथरा भी.
पुरुष की जननी भी
माता और भगिनी भी.
ज्वाला की अग्नि भी.
आप कैसे देखते है?
आधुनिकसमाज सुधारकों के अनुसार
दलित, शोषित, पीड़ित,उपेक्षित
वंचित, कुचलित भी वही है.
आप कैसे देखते है?

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on February 7, 2016 at 4:03pm — 6 Comments

सोये हो तो जागो - डॉo विजय शंकर

क्या कापुरुषत्व अब

सधे पौरुष का पर्याय बन गया है।

विवेक-शून्य होकर

हाँ में हाँ मिलाना ही

विवेक-शील होने का

एकमात्र प्रमाण बन गया है।



समय के साथ चलिए ,

हमारे साथ आगे बढ़िये ,

भले ही हमारा एहसास

सत्रहवीं शताब्दी का हो ।

समवेत-स्वर में गाइये,

सप्तम-स्वर में गाइये ,

स्तुति, वंदना , प्रशस्ति-गान ,

हमारे लिए , आज़ादी है ,

कहाँ मिलेगी ऐसी आज़ादी।

बाकी आवाज उठाना,

समझदार हैं आप ,

समय की बर्बादी है ,

अपनी ही… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 7, 2016 at 12:23pm — 6 Comments

बचपन (लघुकथा)~शीतांशु

1 ||बचपन||



मैं मध्य अवकाश के बाद हमेशा स्कूल से छूमंतर हो जाता । दीदी, अक्सर बैग उठाकर लाती । और घर पर मुँह बंद रखने के बदले मुझसे चॉकलेट जरूर लेती थी। किन्तु मैं बेफिक्र होकर कभी फूलों के लिए 'चम्पा की बॉडी', बेर के लिए नरसिंग टेकड़ी, तो कभी पिकनिक मनाने 'भेडलेश्वर-बड़दख्खन' के बाग में , नदी किनारे चले जाते था। और ठीक स्कूल छूट्टी के समय पर घर लौट आने का क्रम चलता रहा। मैडम की शिकायत भी दीदी संभाल लेती। दोस्तों के साथ नीम, इमली,आम के कई नन्हें पौधें गोबर के ढ़ेर व रुखड़े पर से निकाल कर… Continue

Added by Vijay Joshi on February 7, 2016 at 3:15am — 6 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
ग़ज़ल प्रयास 1....//डॉ. प्राची

2122 2122 2122 2122



बत्तियाँ सारी बुझा कर द्वार पर साँकल चढ़ा कर

मस्त वो अपनी ही धुन में मुझको मुझसे ही चुरा कर



साँस हर मदहोश करती हाथ में खुशबू बची बस

फूल सब मुरझा चुके हैं राह में काँटे बिछा कर



क्या उसे एहसास भी है उस सुलगती सी तपिश का

जिस सुलगती राख में वो चल दिया मुझको दबा कर



सींच कर अपने लहू से ख्वाब की मिट्टी पे मिलजुल

जो लिखी थी दास्तां वो क्यों गया उसको मिटा कर



मेरी पलकों पर सजाए उसने ही सपने सुनहरे

जब कहा…

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Added by Dr.Prachi Singh on February 6, 2016 at 8:00pm — 13 Comments

संध्या के बाद पूर्व ऊषा तक जो निशि भाग चुना मैंने I उस  शब्द-हीन सन्नाटे में  ईश्वर का राग सुना मैंने II                                                   पुच्छल  तारे की थी वीणा शशि-कर के तार सजीले …

संध्या के बाद पूर्व ऊषा तक जो निशि भाग चुना मैंने I

उस  शब्द-हीन सन्नाटे में  ईश्वर का राग सुना मैंने II

                                                 

पुच्छल  तारे की थी वीणा

शशि-कर के तार सजीले थे

उँगलियाँ चलाता था मारुत

रजनीले  लोचन  गीले थे

सरगम संगीत प्रवाहित था अपना प्रतिभाग गुना मैंने I

संध्या के बाद पूर्व ऊषा  ---------------------------------

 

मुखरित होता है मौन कभी

नीरवता  में  भी रव होता

धरती…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 6, 2016 at 2:54pm — 8 Comments

ठंडा डब्बा कांच जड़ा [लघु कथा ]

उस गाँव के छोटे से स्टेशन में कोई गाड़ी नहीं रूकती थी , एक दो  पैसेंजर गाड़ियों को छोड़कर I वो और जस्सी ,धड धड करके  मुहँ चिढ़ाकर निकलती गाड़ियों को खुले  मुहँ  और फैली आँखों से  देर तक देखते रहते थे I उन गाड़ियों के ठन्डे डब्बे जो कांच से एकदम बंद होते थे ,जस्सी को बहुत लुभाते थे I उन दोनों सात आठ  साल के बच्चों की आँखों में एक ही सपना हुआ करता था कि  ठंडे   डब्बे वाली गाड़ी में बैठना है एक दिनI

 स्टेशन की बैंच  में बैठा वो इन्हीं पुरानी यादों में खोया था I आज स्टेशन का नज़ारा कुछ और…

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Added by pratibha pande on February 6, 2016 at 2:40pm — 21 Comments

ग़ज़ल.....इस्लाह के लिए...मनोज अहसास

2122 2122 2122 212

फिर करीने से सजा लूँ मैं तेरी सौगात को

वेदना को कल्पना को इश्क़ को जज़्बात को



इसमें युग युग की विवशता है या कोई शाप है

छूने को साहित्य आतुर सत्ता वाली लात को



अपनी ही करनी का फल है ज़िन्दगी में हर सजा

उनको आँखों में बसाकर जागते हैं रात को



खुद के जैसा रह न पाये और जिन्दा भी रहे

इससे ज्यादा चोट क्या है आदमी की जात को



दूजे पलड़े में सजेगी फलसफा ए ज़िन्दगी

एक पलड़े में चढ़ा दो इश्क़ की शह मात को…

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Added by मनोज अहसास on February 5, 2016 at 11:00pm — 5 Comments

अच्छे दिन !

१-   अच्छे दिन !

सुबह-शाम !

घर-चौबारे आशंकित

प्रतीक्षारत सहेजते हैं...

दीप-बाती और तेल

आक्रोशित तम व्यग्रतावश बिखेर देता

असंख्य नक्षत्र....

भद्रा से प्रभावित

आर्द्रा-रोहिणी

व्यथित कृष्ण-ध्रुव की राह तकती

चांद, बादलों के घात से दु:खी

हवायें दृश्य बदल देतीं

बसंत के इशारों पर पतझड़

होलिका दहन कर बिखेरते

रोशनी,  

चांदनी में लम्बी-लम्बी छाया...

ठूंठ वृक्ष,

नंगी टहनियां सब…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 5, 2016 at 10:05pm — 27 Comments

निर्भया का गुनाहगार बाइज़्ज़त बरी

आज फिर भीष्म शर्मसार है

बंद मुठियां भींचती है…

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Added by amita tiwari on February 5, 2016 at 9:30pm — 3 Comments

मुरलिया का मन पहचाना नहीं ......

वंशी बजाते जीता किये जग



मुरलिया का मन पहचाना नहीं ......



कह के गए थे लौटंगे लौटेंगे ...



कहना हमारा तो माना नहीं ......



जिनके पैरों में बादल छिपे हों



उनका तो कोई ठिकाना नहीं .......



जोड़ा कभी दिल ले तोडा कभी



बातों में तेरी अब आना नहीं .........



सौगंध का क्या ले…
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Added by amita tiwari on February 5, 2016 at 9:30pm — 4 Comments

समा गया तुम में

कभी कभी ऐसा भी होता है एहसास
की सचमुच है सचमुच के आस पास
ऐसे ही जैसे स्वास निःस्वास
हवा पानी ये समूचा आकाश
हालाँकि मालूम है
की ये खाली एहसास है
 …
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Added by amita tiwari on February 5, 2016 at 9:00pm — 5 Comments

बासन्ती गन्ध

बासन्ती  गन्ध

-----------

सोचा था,

उस पार ,

शान्त निर्विघ्न क्षणों में,

पहुंच,

तुम्हारी मधुरस्मृति को सतत करूंगा।।



अलसाये ललचाये मन की तृप्ति हेतु,

नवकल्पित स्वरूप में,

खुद को व्यथित करूंगा।।



पर हाय! निठुर इस विपुल पवन के

तीक्ष्ण शूल,

ले आये,

 बासन्ती  गन्धयुक्त मधु झरित फूल।।



रह गया भ्रमित इस पार,

प्रिये!

उस पार.…

तुम्हारी याद रही.…

अब बतलाओ ,

मैं,

मधुर तुम्हारे…

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Added by Dr T R Sukul on February 5, 2016 at 3:00pm — 15 Comments

विस्थापित लघु कथा - जानकी बिष्ट वाही

चिता की नारंगी लपटें चटख धूप में एकसार हो रही हैं। दूर गाँव से आये पण्डित ने, जिसे ज़मील अहमद सरपंच बड़ी मुश्किल से समझा-बुझा कर लाया था। श्लोक पढ़ा-



" 'नैनं छिन्दति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः'।"

गाँव वालों हाथ में चीड़ की पत्तियाँ पकड़े, ग़मगीन आँखों से गाँव में बचे एक मात्र हिन्दू, पण्डित श्यामनारायण को पंचतत्व में विलीन होते देख रहे हैं।86 वर्ष के मोह के बाद आज़ वे सारे रिश्तों से मुक्त हो गए।



कौन से रिश्ते ? उनके नाते-रिश्तेदार,भाई -बहनऔर दोनों बेटे -बहुएं तो… Continue

Added by Janki wahie on February 5, 2016 at 1:33pm — 10 Comments

अपना अधिकार रहने दो ....

अपना अधिकार रहने दो ....

व्यथित हृदय

कुछ तो रहने दो मन में

व्यथा को शब्दों के लिबास मत दो

शब्द सज संवर के आएंगे

जाने क्या क्या कह जाएंगे

अपने मौन को

शब्दों के आश्रित मत करो

सफर में शब्द भाव बदल देते हैं

जो अपनी होती है

वही बात

शब्दों के परिधान पहन

पराई हो जाती है

अपनी बात को

लोचन में पिघलने मत दो

अन्यथा व्यथा का रूप बदल जाएगा

बात का अपनापन

परायेपन की आशंका से

व्यर्थ में गीला हो जाएगा

बात…

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Added by Sushil Sarna on February 5, 2016 at 12:50pm — 6 Comments

जंगल और शहर

शहर और बस्तियाँ घुस आई हैं

जंगल के भीतर

और जंगली बंदर निकल आए हैं

जंगल से शहर में, बस्तियों में....

बंदरों को अब नहीं भाते

जंगल के खट्टे- मीठे, कच्चे-पके फल

उनके जी चढ़ गया है

चिप्स, समोसे, कचोरियों का स्वाद

आदमियों के हाथों से,

दुकानों से , घरों से छिन कर खाने लगे हैं

वे अपने पसंदीदा व्यंजन

इन्सानो को देख जंगल में छुप जाने वाले

शर्मीले बंदर

अब किटकिटाते हैं दाँत

कभी कभी गड़ा भी देते हैं

भंभोड़ लेते हैं अपने पैने दांतों से…

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Added by Neeraj Neer on February 4, 2016 at 10:24pm — 14 Comments

कल का छोकरा – ( लघुकथा ) -

 कल का छोकरा – ( लघुकथा ) -

"दद्दू , जय हिन्द"!

फ़िर उसने दद्दू के पैर छू लिये!दद्दू राम सिंह ने अपना चश्मा उतारा ,साफ़ किया,फ़िर पहना!

"कौन है भाई,पहचान नहीं पाये"!

"दद्दू, हम अमर सिंह के बडे बेटे सूरज हैं"!

"ये फ़ौज़ी बर्दी किसकी पहन ली"!

"यह अपनी ही है दद्दू"!

"क्यों मज़ाक करते हो बेटा,फ़ौज़ की बर्दी इतनी आसानी से नहीं मिलती!इस गॉव में अभी तक केवल हम ही हैं ,रिटायर्ड सूबेदार मेजर राम सिंह, जो ये सम्मान पाये हैं"!

"दद्दू,आपको याद है,जब हमने…

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Added by TEJ VEER SINGH on February 4, 2016 at 6:23pm — 23 Comments

लाल रंग

लाल रंग"

शिवरात्रि को रौशनी शंकर जी के मंदिर में पूजा कर रही थी तभी उसे सूरज की आवाज सुनाई देती है

"रोशनी रुक जाओ मेरी बात तो सुनो"

"नहीं सूरज तुम नहीं जानते हमारे इस तरह मिलने ये समाज क्या क्या ताने मारेगा......।

"रोशनी किन तानो से डरती हो ....?

जो दर्द ,जो शापित जिंदगी तुम जी रही हो क्या इसकी ज़िम्मेदार तुम हो।"

"नहीं सूरज मैं विधवा हूँ मेरे ज़िन्दगी में रंगों की कोई जगह नहीं.....

"रौशनी बीस वर्ष की उम्र में वैध्वय..क्या जो समाज तुम्हारे जीवन से खुशियो के…

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Added by Amit Tripathi Azaad on February 4, 2016 at 6:23pm — 5 Comments

तुम परी हो / कविता

तुम घर मत आना कभी

तुम्हें कसम है मेरी



तुम्हारा संसार है सपनों सा

और तुम परी जैसी

तुम्हारा मन है कोमल

और तुम निर्मल सी

तुम्हारी कोमलता

तुम्हारी निर्मलता

सहन ना कर पायेंगी

यहाँ की विसंगति



यहाँ जल रहे है बाग

टूट रहे है आशियाने

सब है धुआँ धुआँ

घुट रही है जिंदगी





गये सब शानो असबाब

जल गये राजमहल

रह गई है बस सित्कार

जमीन पर यहीं



काँटे ही काँटे

ना सह पाओगी इन शूलों को

ना रह… Continue

Added by kanta roy on February 4, 2016 at 5:30pm — 6 Comments

हिसाब ( गजल )

 

 1212         1122      1212     22

 

               हिसाब ( गजल )

----------------------------------------------------

खुदा के सामने सबका हिसाब होता है

हरेक शख्स वहां बे-नकाब होता है  

 

अगर सवाल कोई है तो पूछ ले रब से

कि उसके पास तो सबका जवाब होता है

 

बिछे हों राह में कांटे अगर तो डर कैसा 

इन्हीं के बीच में खिलता गुलाब होता है

 

धरम के नाम पे मिलकर रहें तो अच्छा है

धरम…

Continue

Added by Sachin Dev on February 4, 2016 at 1:30pm — 8 Comments

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